Friday 6 March 2009

ग़ज़ल - महावीर शर्मा

ग़ज़ल
महावीर शर्मा
सोगवारों* में मिरा क़ातिल सिसकने क्यूं लगा
दिल में ख़ंजर घोंप कर, ख़ुद ही सुबकने क्यूं लगा
(*सोगवारः- मातम/शोक करने वाले)

आइना देकर मुझे, मुंह फेर लेता है तू क्यूं
है ये बदसूरत मिरी, कह दे झिझकने क्यूं लगा

दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा

गर ये अहसासे-वफ़ा जागा नहीं दिल में मिरे
नाम लेते ही तिरा, फिर दिल धड़कने क्यूं लगा

जाते जाते कह गया था, फिर आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा

छोड़ कर तू भी गया अब, मेरी क़िस्मत की तरह
तेरे संगे-आसतां पर सर पटकने क्यूं लगा

ख़ुश्बुओं को रोक कर बादे-सबा ने यूं कहा
उस के जाने पर चमन फिर भी महकने क्यूं लगा।

महावीर शर्मा

10 मार्च 2009, मंगलवार:

'होली' के दिन इसी ब्लाग पर निम्न रचनाकार अपनी रंगा-रंग रचनाओं से होली का उत्सव मना रहे हैं

:नज़ीर अकबराबादी, पूर्णिमा वर्मन (शारजाह), प्राण शर्मा (यू.के.), समीर लाल 'समीर' (कैनेडा,
पुष्पा भार्गव (लंदन), लावण्या (यू.एस.),सुधा ओम ढींगरा (यू.एस.), मानोशी चैटर्जी - आडियो (कैनेडा), आपका ख़ादिम महावीर शर्मा(लन्दन)


आप भी उस दिन
टिप्पणी में अपनी रचनाओं और विचारों से होली में सम्मलित होकर इस उत्सव का आनंद लीजिये

18 comments:

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह.. दादा वाह.. रदीफ़ को बहुत ही बेहतरीन निभाया ...बाक़माल.. वाह..
और हां आपका आमंत्रण स्वीकार..
होली पर दो छंद अपने मेल-बाक्स में संभालें..

योगेन्द्र मौदगिल said...

आपके ब्लाग पर आपका मेलआइडी मुझे कहीं नज़र नहीं आया..
इसलिये जै राम जी की..
फिर मिलेंगें..

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

इतनी सुंदर ग़ज़ल है। मैं तो बस चुप हूँ, हैरान सी...वाह कहना भी जैसे छोटे मुँह बड़ी बात होगी। हर एक शेर जैसे दिल की गहराइयों में उतर जाता है...

नीरज गोस्वामी said...

कमाल की ग़ज़ल कही है आपने महावीर जी...आप तो उस्तादों के उस्ताद हैं....आनंद आ गया पढ़ कर.

नीरज

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत लाजवाब. बेमिसाल रचना.

रामराम.

रश्मि प्रभा... said...

जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा
........ बहुत ही बेमिसाल रचना

दिगम्बर नासवा said...

दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा

जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा

प्रणाम महावीर जी
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल और खिला हुवा हर शेर लाजवाब है. आपकी शायरी से बहुत कुछ सीखने को मिलता है

होली की आपसब को बहुत बहुत बधाई
१० मार्च का इंतज़ार रहेगा

vijay kumar sappatti said...

sir , sorry for late arrival , i was on a long tour.

This is a great gazal of yours .
जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा

These lines are ultimate..

good work ..

bahut badhai ..

maine bhi kuch naya likha hai , pls read my new poem on http://poemsofvijay.blogspot.com

कंचन सिंह चौहान said...

har sher khoobsurat gutruvar...!

"अर्श" said...

आदरणीय महावीर जी सादर प्रणाम,
आपकी ग़ज़ल पढ़ी,दीखता है उम्र के पडावों का अनुभव. जो शायद मुझे ना मिले ... बहोत ही कासी हुई ग़ज़ल कही आपने... मेरे जैसा अदना क्या आपकी तारीफ करे ... खुद अक अपमान करने जैसा है ... शब्द नहीं है मेरे पास साहब... हमेशा से मुरीद रहा हूँ आपके गज़ल्गोई का ... ढेरो बधाई आपको...

अपनी नई ग़ज़ल पे आपका आशीर्वाद चाहूँगा..


अर्श

Anonymous said...

Aadarniy Mahavir jee,
Aapkee is gazal ke
kyaa hee kahne hain!Is ko kahte
hain aamad gazal.Ek-ek sher aapne
aap dil se niklaa huaa.Kaee baar
har sher ko padh gayaa hoon aur n
jaane kitnee baar aur padhungaa?Is
behtreen gazal padhvaane ke liye
aapkaa dhanyavaad.

अमिताभ श्रीवास्तव said...

aadarniya mahavirji,
kya kahu, kese kahu,,,bas aapke aashirvaad aapke shbdo ki tarah bane rahe...bahut behtreen gazal he..
दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा

vakai dil ko chhu jaane vali pankti he.me to bas padhte hi rahna chahta hu..

Vinay said...

बहुत सुन्दर ग़ज़ल है, बहुत सुन्दर!

कडुवासच said...

सोगवारों* में मिरा क़ातिल सिसकने क्यूं लगा
दिल में ख़ंजर घोंप कर, ख़ुद ही सुबकने क्यूं लगा
... अत्यंत प्रभावशाली व प्रसंशनीय अभिव्यक्ति, पूरी गजल बेजोड व बेमिसाल है।
धन्यवाद... जय हिन्द।

गौतम राजऋषि said...

"दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन/आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा"
महावीर जी ये तो तमाम दाद और वाह-वाही से परे है...और इस शेर पर "छोड़ कर तू भी गया अब, मेरी क़िस्मत की तरह/तेरे संगे-आसतां पर सर पटकने क्यूं लगा/" तो बस सब निछावर

...होली की अग्रीम शुभकामनायें

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

बहुत ही सुन्दर और मुकम्मिल ग़ज़ल के लिये आभार.

हर शेर खूबसूरत है.
"दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा"
और यह

ख़ुश्बुओं को रोक कर बादे-सबा ने यूं कहा
उस के जाने पर चमन फिर भी महकने क्यूं लगा।
और यह

जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा
सारी ग़ज़ल ही कमेंट बॉक्स में उतर आएगी
गिनाने लगूँ तो.


होली की रंगारंग मंगलकामनाओं के साथ

सादर

वीनस केसरी said...

महावीर जी प्रणाम
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ और आ कर जाना की क्या मुझसे छूट रहा था
बहुत बेहतरीन गजल कही आपने हर शेर से अनुभव टपक रहा है मुझे लगता है मैं चाह कर भी कम से कम बीस साल तक तो ऐसी गजल नई लिख सकता
हर शेर पर दिल से वाह वाह निकल रहा है
वीनस केसरी

श्रद्धा जैन said...

Aadarneey Mahavir ji
Sadar namskaar,
Aapki gazal padh kar man jhoom utha ek ek sher ko do teen baar padha aur phir har baar wah kaha

baat ko kahne ka paaka anutha andaaj bahut achha laga

khas kar ye sher

छोड़ कर तू भी गया अब, मेरी क़िस्मत की तरह
तेरे संगे-आसतां पर सर पटकने क्यूं लगा