Sunday, 27 September 2009

दशहरे के दोहे - आचार्य संजीव 'सलिल'

आप सभी को विजय दशमी के शुभ अवसर पर शुभकामनाएं !

(पंकज सुबीर जी की कविता 'भेड़िया' दशहरे के पश्चात मंगलवार, २९ सितंबर को पोस्ट की जायेगी)

दशहरे के दोहे

आचार्य संजीव 'सलिल'

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भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य.
स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य..

आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ.
फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ..

मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत.
हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत..

शर निष्ठां का लीजिये, कोशिश बने कमान.
जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान..

राम वही आराम हो, जिसको सदा हराम.
जो निज-चिंता भूलकर सबके साधे काम..

दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान.
दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान..

सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प.
पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प..

हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ.
विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ..

कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान.
परम सत्य उससे नहीं, रह पाता अनजान..

हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ विश्वास.
इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास..

रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार.
स्वार्थ- बैर, मद-क्रोध को, बन लछमन संहार..

अनिल अनल भू नभ सलिल, देव तत्व है पाँच.
धुँआ धूल ध्वनि अशिक्षा, आलस दानव- साँच..

राज बहादुर जब करे, तब हो शांति अनंत.
सत्य सहाय सदा रहे, आशा संत-दिगंत..

दश इन्द्रिय पर विजय ही, विजयादशमी पर्व.
राम नम्रता से मरे, रावण रुपी गर्व.

आस सिया की ले रही, अग्नि परीक्षा श्वास.
द्वेष रजक संत्रास है, रक्षक लखन प्रयास..

रावण मोहासक्ति है, सीता सद्-अनुरक्ति.
राम सत्य जानो 'सलिल', हनुमत निर्मल भक्ति..

मात-पिता दोनों गए, भू तजकर सुरधाम.
शोक न, अक्षर-साधना, 'सलिल' तुम्हारा काम..

शब्द-ब्रम्ह से नित करो, चुप रहकर साक्षात्.
शारद-पूजन में 'सलिल' हो न तनिक व्याघात..

माँ की लोरी काव्य है, पितृ-वचन हैं लेख.
लय में दोनों ही बसे, देख सके तो देख..

सागर तट पर बीनता, सीपी करता गर्व.
'
सलिल' मूर्ख अब भी सुधर, मिट जायेगा सर्व..

कितना पाया?, क्या दिया?, जब भी किया हिसाब.
उऋण न ऋण से मैं हुआ, लिया शर्म ने दाब..

सबके हित साहित्य सृज, सतत सृजन की बीन.
बजा रहे जो 'सलिल' रह, उनमें हो तू लीन..

शब्दाराधक इष्ट हैं, करें साधना नित्य.
सेवा कर सबकी 'सलिल', इनमें बसे अनित्य..

सोच समझ रच भेजकर, चरण चला तू चार.
अगणित जन तुझ पर लुटा, नित्य रहे निज प्यार..

जो पाया वह बाँट दे, हो जा खाली हाथ.
कभी उठा मत गर्व से, नीचा रख निज माथ.

जिस पर जितने फल लगे, उतनी नीची डाल.
छाया-फल बिन वृक्ष का, उन्नत रहता भाल..

रावण के सर हैं तने, राघव का नत माथ.
रिक्त बीस कर त्याग, वर तू दो पंकज-हाथ..

देव-दनुज दोनों रहे, मन-मंदिर में बैठ.
बता रहा तव आचरण, किस तक तेरी पैठ..

निर्बल के बल राम हैं, निर्धन के धन राम.
रावण वह जो किसी के, आया कभी न काम..

राम-नाम जो जप रहे, कर रावण सा काम.
'
सलिल' राम ही करेंगे, उनका काम तमाम..

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7 comments:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

दश इन्द्रिय पर विजय ही, विजयादशमी पर्व.
राम नम्रता से मरे, रावण रुपी गर्व.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
बेहद सुन्दर व शिक्षा प्रद --
भारतीय परम तत्त्व की शिक्षा दीक्षा से ओत प्रोत आचार्य श्री के दोहे
दसहरा पर्व को पवित्र प्रसाद सम मिले -
- आभार आपका आदरणीय महावीर जी
- जो इस पवित्र प्रसाद को हम तक पहुंचाया
सादर,
- लावण्या

Devi Nangrani said...

माँ की लोरी काव्य है, पितृ-वचन हैं लेख.
लय में दोनों ही बसे, देख सके तो देख..
पावन मनभावन लगे, दोहे सभी कमाल
पढ़कर उनको मन हुआ, आज है मालामाल
सुंदर अभिव्यक्ति के लिए बधाई
पर्व के लिए मंगलकामनाओं के साथ
देवी नागरानी

PRAN SHARMA said...

KAVIVAR SALIL JEE KE SABHEE DOHE
MUN KO BHAA GAYE HAIN.
VIJAYDASHMEE KE SHUBH AVSAR PAR
SABHEE KO BADHAAEE.

निर्मला कपिला said...

बहुत सुन्दर दोहे हैं आप सब को विजयदश्मी की शुभकामनायें

रश्मि प्रभा... said...

बहुत ही अच्छे दोहे हैं.....बधाई रचनाकार को

रंजना said...

इन दोहों में भर जो ज्ञान रूपी खान आपने सबपर लुटाये हैं,उसके लिए हम ह्रदय से आपके कृतज्ञं हैं.....मन मुग्ध और विभोर हो गया इनमे डूब कर...आचार्वर को नमन....

Divya Narmada said...

की सराहना आपने, बहुत-बहुत आभार.
'सलिल'धन्य उसको मिला, श्रेष्ठ जनों का प्यार..