वसंत पंचमी के शुभ अवसर पर आप सब को शुभकामनाएं
आज से 'महावीर' ब्लॉग यू.के. के कवियों की उत्कृष्ट रचनाओं की शृंखला
आरंभ कर रहा है। यदि यह शृंखला सफल रही तो 'महावीर' ब्लॉग भविष्य
में यूरोप, कनाडा, अमेरिका, खाड़ी प्रदेश, सिंगापुर और मारिशस की
उत्कृष्ट रचनाओं को प्रकाश में लाने का सत् प्रयास करेगा.
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बीसवीं शताब्दी की सब से बड़ी दुर्घटना 'भारत का विभाजन' थी।
उस विभाजन का आँखों देखा हाल यू.के. के प्रसिद्ध साहित्यकार
डॉ. गौतम सचदेव ने अपनी रचना 'पलायन' के दो भागों में बयान किया है।
उसका सजीव चित्रण पढ़ियेगा।
'पलायन' का पहला भाग :
डॉ. गौतम सचदेव
आये नभ के नयन भर घर छोड़कर जब हम चले
क्या कहें दीवार दर घर छोड़कर जब हम चले
साथ अपने जिस्म को हम खींच कर चलने लगे
रह गया दिल ताक पर घर छोड़कर जब हम चले
मुश्किलों के पत्थरों का बोझ उठता ही न था
हो गई दुहरी कमर घर छोड़कर जब हमचले
आफतें बरसीं, गिरीं फिर संकटों की बिजलियाँ
था ज़माना बेमेहर घर छोड़कर जब हम चले
ढेर तकलीफ़ें लिए, दुक्खों की लादे गठरियाँ
काफ़िले आये नज़र घर छोड़कर जब हम चले
भीड़ चलती थी गिराती आँसुओं को राह पर
धूल बनती थी ज़हर घर छोड़कर जब हम चले
लोग चिथड़ों में दिखे ज्यों कफ़न लिपटी ठठरियां
आँख थी हर एक तर घर छोड़कर जब हम चले
कांच जैसे थे सभी हम और खाते ठोकरें
चुभ गईं किरचें बिखर घर छोड़कर जब हम चले
राह में हमला न हो ,लुट जाए न इज़्ज़त कहीं
थे बहुत अज्ञात डर घर छोड़कर जब हम चले
छाँह में नभ की कहीं बिस्तर बनाते राह को
लोग जाते गिर पसर, घर छोड़कर जब हम चले
भीड़, दहशत, भूख, दुःख, सब रोग, हाहाकार भी
संग थे अपने सगर, घर छोड़कर जब हम चले
राजनीतिक खेल में हम बन गये थे गोटियाँ
ज़िन्दगी थी दाँव पर घर, छोड़कर जब हम चले
देश अपना था मगर वह बन चुका परदेस था
लुट गया सब माल ज़र, घर छोड़कर जब हम चले
हम ढलानों से धकेले जा रहे थे खड्ड में
छिन गये अपने शिखर घर छोड़कर जब हम चले
झाड़ियों को मील के पत्थर समझकर हम बढ़े
थी कठिन लम्बी डगर, घर छोड़कर जब हम चले
रात को आते यही सपने कि अर्थी उठ गयी
जी रहे थे रोज मर घर छोड़कर जब हम चले
वक़्त क़ातिल था हुआ या वक़्त का ही क़त्ल था
था बड़ा ज़ालिम पहर घर छोड़कर जब हम चले
जल गयी सब चाहतें, अरमान, सारी हसरतें
ख़ाक दिल का कोहबर घर छोड़कर जब हम चले
धर्म की चौपड़ बिछा कर राज ने पाँसे गढ़े
कौन करता ना- नुकर घर छोड़कर जब हम चले
जा रहा अँगरेज़ घर अपने, किया बेघर हमें
ले गया सर्वस्व हर, घर छोड़कर जब हम चले
काट कर धरती फिरंगी ने दिए नक्शे नये
खून से थे तर-बतर घर छोड़कर जब हम चले
सरहदें खंजर बनीं, सब कट गईं आबादियाँ
बस्तियाँ थीं खंडहर घर छोड़कर जब हम चले
लुट गये, अगवा हुए,मारे, जला डाले गये
नित नयी सुनते खबर घर छोड़कर जब हम चले
कौन फिसला या गिरा या कौन कुचला जा रहा
कोई ना देखे ठहर घर छोड़कर जब हम चले
माँ अलग, बच्चे अलग, अपने न जाने थे कहाँ
मौत ही थी हमसफ़र घर छोड़कर जब हम चले
डॉ. गौतम सचदेव
क्रमश:
उस विभाजन का आँखों देखा हाल यू.के. के प्रसिद्ध साहित्यकार
डॉ. गौतम सचदेव ने अपनी रचना 'पलायन' के दो भागों में बयान किया है।
उसका सजीव चित्रण पढ़ियेगा।
'पलायन' का पहला भाग :
डॉ. गौतम सचदेव
आये नभ के नयन भर घर छोड़कर जब हम चले
क्या कहें दीवार दर घर छोड़कर जब हम चले
साथ अपने जिस्म को हम खींच कर चलने लगे
रह गया दिल ताक पर घर छोड़कर जब हम चले
मुश्किलों के पत्थरों का बोझ उठता ही न था
हो गई दुहरी कमर घर छोड़कर जब हमचले
आफतें बरसीं, गिरीं फिर संकटों की बिजलियाँ
था ज़माना बेमेहर घर छोड़कर जब हम चले
ढेर तकलीफ़ें लिए, दुक्खों की लादे गठरियाँ
काफ़िले आये नज़र घर छोड़कर जब हम चले
भीड़ चलती थी गिराती आँसुओं को राह पर
धूल बनती थी ज़हर घर छोड़कर जब हम चले
लोग चिथड़ों में दिखे ज्यों कफ़न लिपटी ठठरियां
आँख थी हर एक तर घर छोड़कर जब हम चले
कांच जैसे थे सभी हम और खाते ठोकरें
चुभ गईं किरचें बिखर घर छोड़कर जब हम चले
राह में हमला न हो ,लुट जाए न इज़्ज़त कहीं
थे बहुत अज्ञात डर घर छोड़कर जब हम चले
छाँह में नभ की कहीं बिस्तर बनाते राह को
लोग जाते गिर पसर, घर छोड़कर जब हम चले
भीड़, दहशत, भूख, दुःख, सब रोग, हाहाकार भी
संग थे अपने सगर, घर छोड़कर जब हम चले
राजनीतिक खेल में हम बन गये थे गोटियाँ
ज़िन्दगी थी दाँव पर घर, छोड़कर जब हम चले
देश अपना था मगर वह बन चुका परदेस था
लुट गया सब माल ज़र, घर छोड़कर जब हम चले
हम ढलानों से धकेले जा रहे थे खड्ड में
छिन गये अपने शिखर घर छोड़कर जब हम चले
झाड़ियों को मील के पत्थर समझकर हम बढ़े
थी कठिन लम्बी डगर, घर छोड़कर जब हम चले
रात को आते यही सपने कि अर्थी उठ गयी
जी रहे थे रोज मर घर छोड़कर जब हम चले
वक़्त क़ातिल था हुआ या वक़्त का ही क़त्ल था
था बड़ा ज़ालिम पहर घर छोड़कर जब हम चले
जल गयी सब चाहतें, अरमान, सारी हसरतें
ख़ाक दिल का कोहबर घर छोड़कर जब हम चले
धर्म की चौपड़ बिछा कर राज ने पाँसे गढ़े
कौन करता ना- नुकर घर छोड़कर जब हम चले
जा रहा अँगरेज़ घर अपने, किया बेघर हमें
ले गया सर्वस्व हर, घर छोड़कर जब हम चले
काट कर धरती फिरंगी ने दिए नक्शे नये
खून से थे तर-बतर घर छोड़कर जब हम चले
सरहदें खंजर बनीं, सब कट गईं आबादियाँ
बस्तियाँ थीं खंडहर घर छोड़कर जब हम चले
लुट गये, अगवा हुए,मारे, जला डाले गये
नित नयी सुनते खबर घर छोड़कर जब हम चले
कौन फिसला या गिरा या कौन कुचला जा रहा
कोई ना देखे ठहर घर छोड़कर जब हम चले
माँ अलग, बच्चे अलग, अपने न जाने थे कहाँ
मौत ही थी हमसफ़र घर छोड़कर जब हम चले
डॉ. गौतम सचदेव
क्रमश:
अगला अंक : २१ जनवरी २०१०
डॉ. गौतम सचदेव की रचना
'पलायन' का अंतिम भाग
18 comments:
बँटवारे का दर्द मुझसे पिछली पीढ़ी ने सीधे-सीधे सहा है। मैनें सुना है और जो कुछ सुना है डॉ. साहब ने बहुत ही सटीक शब्दों में बयॉं किया है उस दृश्य को।
उनके अपने कारण होंगे इसे पलायन नाम देने के लेकिन जैसा मैं समझ पाता हूँ यह अति महात्वाकॉंक्षा की राजनीतिक परिणती की स्थिति है।
हमारा परिवार काला बाग मियॉंवाली से है। आज भी जब पिताजी को गूगल मैंप पर वह क्षेत्र दखिाता हूँ तो पाता हूँ कि दर्द तो वक्त के साथ दूर हो चुका है लेकिन एक तड़प फिर भी बाकी है कुछ पुराने दोस्तों से मिलने की जो मुस्लिम होने के कारण वहीं बसे रह गये। दिल नहीं बँटे, ज़मीनें बँट गयीं।
डॉ. साहब का आभारी हूँ इस मर्मस्पर्शी रचना के लिये। देसरे अंश का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।
बँटवारे के इस दर्द को मेरे पुर खानदान ने सहा है ...... मैने तो बस कहानियाँ ही सुनी है उनकी ज़ुबान से ........ आज भी जब कभी मेरी माता जी उन लम्हों को याद करती हैं ......... रोंगटे खड़े हो जाते हैं .......... बहुत बहुत आभार है डाक्टर गौतम का इस दर्द भारी दास्तान को पेपर उतारने का ........
apni jameen se katne ka dard vahee jaan saktaa hai jinhone ise bhogaa hai mai jab bhee itihaas ke panno me jhanktaa hoon to unn sabhee visthapiton kee kahaaniyon men dard ke samundr lehlahaa uthte hain jo in isthition ke karan bane hain ve saaree isthatiyan sabhya logon ke chehron par badnumaa daag chhod jaate hain mai hameshaa ishvar se prarthnaa kartaa hoon ki aesee isthitiyan phir kabhee n dekhne ko mile Dr Goutam jee kee kavitaa ussee dor ko bade saaphgoee se bayaan kartee hai unki iss sundar rachnaa ke liye mai unkaa aabhar vayakt kartaa hoon
ashok andrey
गौतम जी की रचना ने पूरा दृश्य ही आँखों के सामने ला दिया....बंटवारे कि बातें बस मैंने अपनी नानी की ज़ुबानी सुनी थीं...
और हमेशा सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं...आज भी ये रचना पढ़ कर ऐसी ही अनुभूति हो रही है ....
श्रद्देय महावीर जी, प्रणाम
क्या व्यथा बयान की है आदरणीय डॉ. गौतम सचदेव जी ने
मतले से लेकर-
आये नभ के नयन भर घर छोड़कर जब हम चले
क्या कहें दीवार दर घर छोड़कर जब हम चले
.....साथ अपने जिस्म को हम खींच कर चलने लगे.....
.....धर्म की चौपड़ बिछा कर राज ने पाँसे गढ़े.....
और
माँ अलग, बच्चे अलग, अपने न जाने थे कहाँ
मौत ही थी हमसफ़र घर छोड़कर जब हम चले
कई जगह ठहरना पड़ा.....
और....दिल से ये सदा आई.....
जख्म सारे फिर हरे वो हो गये 'सचदेव जी'
दर्द के दरिया में जैसे डूबकर जब हम चले
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
'पलायन' का पहला भाग:डॉ. गौतम सचदेव , पढ़ा । रचना बहुत मार्मिक एवं सजीव है । विभाजन की पूरी त्रासदी मुखर हो उठी है . अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी ।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
vibhajan ki trasdi ko bahut hi marmikta se bayan kar diya hai.......agli kadi ka intzaar.
Yashpaal ji ki jhootha sach padhi thi.. yaad taza ho gayi...
dil bas rone ko ho aata hai...
बहुत मार्मिक रचना विभाजन का दर्द बयां करती.इस प्रस्तुती के लिए आभार
गौतम जी ! आपकी रचना ने जैसे वो दर्दनाक दृश्य आँखों के सामने खींच दिया....इस मार्मिक रचना के लिए आभार
काट कर धरती फिरंगी ने दिए नक्शे नये
खून से थे तर-बतर घर छोड़कर जब हम चले
सरहदें खंजर बनीं, सब कट गईं आबादियाँ
बस्तियाँ थीं खंडहर घर छोड़कर जब हम चले
डा़गौतम जी ने उस समय का क्या स्जी4व चित्रण किया है आँखें नम हो गयी इस मार्मिक रचना पर गौतम जी को शुभकामनायें आपका आभार
.... विभाजन,हालात,अलगाव,दर्द,आंसू, खून, तडफ़,बेचैनी,मर्म,.... लगभग सभी हिस्सों का खुबसूरती से चित्रण है इस रचना में ....बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति, बहुत बहुत बधाई !!!!
विभाजन की त्रासदी को बखूबी बयान करती सुंदर रचना।
इसे तो खण्ड-काव्य होना चाहिए !
डॉक्टर गौतम जी की ग़ज़ल विभाजन की त्रासदी को बखूबी बयान करती है,मर्मस्पर्शी लगी.
इस नयी शृंखला से हमें अच्छी रचनाएँ पढ़ने को मिलेंगी और सीखने को भी.
आभार आप का.
आ . महावीर जी ,
प्रणाम
आप नित नया परोसते रहते हैं -
धन्य है यह ऊर्जा और प्रयास -
आज आ. गौतम जी की यह
संवेदनशील रचना पढ़ ,
बीते दिनों में मन लौट गया -
विभाजन की त्रासदी का इतिहास बड़ा दुखद है
:-((
आप सभी को बसंत पर्व पर माँ शारदा की कृपा उपलब्ध हो इस मंगल कामना सह:
- विनीत
- लावण्या
JISKEE KALPNA MAATRA BHI JHURJHURI PAIDA KAR DETI HAI,USE JINHONE SAHA HOGA..KAISE SAHA HOGA....SOCHKAR MAN AJEEB SAA HO UTHTA HAI....
IS PEEDAA KO AAPNE JIS PRAKAAR ABHIVYAKTI DI HAI...AB KYA KAHUN....APRATIM !!!
इस मार्मिक रचना के लिए आभार
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