Saturday 19 June 2010

अमेरिका से देवी नागरानी की दो ग़ज़लें


ग़ज़ल
देवी नागरानी

ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
समझ बूझ से तुम निभाकर तो देखो

यह पुल प्यार का एक, नफ़रत का दूजा
ये अन्तर दिलों से मिटाकर तो देखो

गिराते हो अपनी नजर से जिन्हें तुम
उन्हें पलकों पर भी बिठाकर तो देखो

उठाना है आसान औरों पे उंगली
कभी खुद पे उंगली उठाकर तो देखो

न जाने क्या खोकर है पाते यहाँ सब
मिलावट से खुद को बचाकर तो देखो

न घबराओ देवी ग़मों से तुम इतना
जरा इनसे दामन सजाकर तो देखो

देवी नागरानी
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ग़ज़ल
देवी नागरानी

कुछ अंधेरो में दीपक जलाओ
आशियानों को अपने सजाओ।

घर जलाकर न यूँ मुफलिसों के
उनकी दुश्वारियाँ तुम बढ़ाओ।

कुछ ख़राबी नहीं है जहाँ में
नेकियों में अगर तुम नहाओ।

प्यार के बीज बो कर दिलों में
ख़ुद को तुम नफ़रतों से बचाओ।

शर्म से है शिकस्तों ने पूछा
जीत का अब तो घूँघट उठाओ।

इलत्जा अश्क़ करते हैं देवी
ज़ुल्म की यूँ न हिम्मत बढ़ाओ।
देवी नागरानी
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11 comments:

ashok andrey said...

Devi Nagrani jee ki dono gajlen bahut gehre andaaj me likhee gai hain jinka asar dil ki gahraion tak jaakar sochne ko majboor karta hai,- jaise
oothana hai aasan auron pe oonglee
kabhi khud pe oonglee oothakar to dekho,tatha
kuchh kharaabi nahin hai jahaan me
nekiyon men agar tum nahaao.

in gajlon ke liye mai Devi jee ko tatha aapko dhanyawad deta hoon.

सुभाष नीरव said...

देवी नागरानी जी की ग़ज़लें काफी समय से पढ़ता आ रहा हूँ। बहुत अच्छी लगती है इनकी ग़ज़लें। ये दोनों ग़जलें भी मन को भाईं।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सचमुच शानदार रचनाएँ।
---------
इंसानों से बेहतर चिम्पांजी?
क्या आप इन्हें पहचानते हैं?

kavi kulwant said...

devi ji ko padh sun kar hamesha hiu achcha lagta hai..
unhe sunane ka avsar kai vaar milaa...dono gazalen umda

रंजना said...

ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
समझ बूझ से तुम निभाकर तो देखो

क्या बात कह दी आपने....
बस यह एक मात्र यदि कोई अपने मन में धारण कर ले और जीवन में अपना सके तो क्या मजाल है कि फिर दुनिया में और जिंदगियों में कोई दुश्वारी बच जाय...

मन की आँखे खोलती सहज सरल प्रेरणादायक,सकारात्मकता का प्रसार करती दोनों ही रचनाएं अभिभूत कर गयीं...

Narendra Vyas said...

आदरणीया देवी नागरानी जी को प्रणाम ! मेरे पास वो मादा नहीं की मैं नागरानी जी की ग़ज़लों के बारे में टिपण्णी कर सकूँ..फिर भी दो शब्द आपके चरणों में.. निम्न पंक्तियों को पढ़ कर बहुत ही प्रभावित हुवा कि..
उठाना है आसान औरों पे उंगली
कभी खुद पे उंगली उठाकर तो देखो

कितना सटीक और यथार्थपरक भाव व्यक्त किया है..
और इन पंक्तियों में आपने एक सकारात्मक और आशावादी भाव व्यक्त किया है.. जो वन्दनीय है-
कुछ ख़राबी नहीं है जहाँ में
नेकियों में अगर तुम नहाओ।

ज़माने को जिस नज़र से देखेंगे, वैसा ही नज़र आएगा..तो क्यों ना हम नेकी की नज़र से देखें.. अगर सभी आपकी इन पंक्तियों का अनुसरण करें तो शायद ही दुनिया में कोई बुराई रहेगी...आपका बेहद आभार ! आदरजोग श्रद्धेय श्री महावीर जी और परम आदरणीय श्री प्राण साहब को मेरा प्रणाम !

अर्चना तिवारी said...

दोनों ग़ज़लें बेहद खूबसूरत हैं

Udan Tashtari said...

दोनों गज़लें बहुत पसंद आईं. देवी जी को प्रणाम!!

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

या देवी सर्व भूतेषु 'ग़ज़ल ' रूपेण संस्थिता !
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:!

आदरणीया देवी नांगरानीजी की ग़ज़लें पढ़ना हमेशा ही एक विशिष्ट अनुभव से गुज़रना होता है ।

आप बिना किसी बोझिलता से गुज़रने को विवश किए भी इतनी सहज और संप्रेषणीय भाषा , शैली में बात कहने का हुनर रखती हैं , कि मन से स्वतः ही वाह निकल जाती है । आपने मेहरबानी कर'के मुझे अपनी पुस्तक पढ़ने का भी सौभाग्य प्रदान किया है।
यहां प्रस्तुत आपकी दोनों ग़ज़लें एक से बढ़कर एक हैं । मैं पहली ग़ज़ल को , मेरी पसंदीदा बह्रों में से एक में होने के कारण … अधिक तवज़्ज़ो' देते हुए गनगुना रहा हूं । तमाम शे'र बेहद ख़ूबसूरत हैं ! बहुत अच्छे हैं !
एक ख़ास गुज़ारिश है…
आदरणीया देवीजी की इन दोनों ग़ज़लों के सारे शे'रों को मेरी टिप्पणी में "कोट" किए हुए मानें ।
… क्योंकि , पूरी ग़ज़ल को यहां कॉपी कर देना तो सही नहीं होगा न ?!

समय निकाल कर शस्वरं पर भी आएं…

- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

निर्मला कपिला said...

नागरानी जी की गज़लें पसंद आयी। उन्हें बधाई

Devi Nangrani said...

Aap sabhi ka tahe dil se aabhaar!! mere housle ko banaye rakhne ke liye ....