डॉ. सुभाष राय
जन्म : : जनवरी 1957 में उत्तर प्रदेश के जनपद मऊ नाथ भंजन में स्थित एक छोटे से गांव बड़ागांव में।
शिक्ष-दीक्षा :मऊ के डी सी एस के डिग्री कालेज से हिंदी, अंग्रेजी और मनोविज्ञान विषयों के साथ स्रातक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आगरा विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध साहित्य संस्थान के.एम.आई. से हिंदी भाषा और साहित्य में स्रातकोत्तर की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वहीं से विश्वविद्यालयीय शिक्षक योग्यता परीक्षा नेट पास की, विधि की पढ़ाई पूरी की और उत्तर भारत के विख्यात संत कवि दादूदयाल के रचना संसार पर शोध किया। डाक्टरेट मिली।
प्रकाशन :जब मैट्रिक का विद्यार्थी था, तभी से जनवार्ता, गांडीव जैसे काशी के समाचारपत्रों में कविताएं, कहानियां और आलेख प्रकाशित होने लगे थे। समसामयिक विषयों पर एक हजार से ज्यादा लेख प्रकाशित। हिंदी क्षेत्र की लगभग सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं लगातार लेख, व्यंग्य, समीक्षा और कविताओं का प्रकाशन।
इन्टरनेट पर :अपने ब्लॉग ‘बात-बेबात’ और 'साखी' के अलावा अनेक प्रतिष्ठित ई-मैग्ज़ींस में कवितायेँ और अन्य रचनाएँ. विश्व कविता संग्रह कविता कोश में रचनाएँ शामिल.
प्रसारण :प्रयाग में निवास के दौरान आकाशवाणी इलाहाबाद से कई वर्षों तक कविता, कहानी और वार्ताओं का प्रसारण।
सम्मान-पुरस्कार :: संस्कार भारती, आगरा विकास संघ तथा कई अन्य साहित्यसेवी संस्थाओं की ओर से सम्मान। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के प्रतिष्ठापूर्ण पुरस्कारों की चयन समिति का सदस्य रहा.
विशेष : नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर डा. उमा शंकर तिवारी, हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और आलोचक डा. कन्हैया सिंह, नयी कविता के शीर्ष रचनाकारों में शामिल श्रीराम वर्मा के अलावा हिंदी के अनन्य साधक डा रघुवंश, जगदीश गुप्त, मार्कंडेय जी, दूधनाथ सिंह आर प्रो हरिमोहन के सानिध्य में बैठकर साहित्य पढ़ने का अवसर मिला। केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के पत्रकारिता विभाग में छः माह तक अध्यापन
संप्रति :प्रयाग के नार्दर्न इंडिया पत्रिका ग्रुप में सेवा शुरू करके तीन दशकों की इस पत्रकारीय यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव पर. अमृत प्रभात, आज, अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्रों में शीर्ष जिम्मेदारियां संभालने के बाद इस समय आगरा में एक मिड-डेयर दैनिक समाचारपत्र डीएलए से संपादक विचार के रूप में जुड़ा हुआ हूं।
संपर्क : ए-158, एमआईजी, शास्त्रीपुरम, बोदला रोड, आगरा (यूपी)
फोन: ०९९२७५००५४१
डॉ. सुभाष राय
अंश हूँ मैं सम्पूर्ण
मां के गर्भ में रचा
तुमने मुझे अपने लहू से
तुमसे मुक्त कैसे
हो पाऊंगा कभी
कैसे वापस लौटा सकूँगा तुझे
उसका अंश भी जो
तुमने दिया है मुझे
सब कुछ निछावर करके भी
अपने आंसुओं के साथ
रखा तुमने मुझे
जो करुणा और प्रेम
पाता हूँ अपने भीतर
तुम्हारी संवेदना से सिंचित है वह
कैसे विछड़ सकता हूँ मैं
तुमसे, तुम्हारे आंसुओं से
मैं जानता हूँ तुम रहोगे
सदा, सर्वदा मेरी आत्मा में
ज्योति की तरह दीप्त
मेरी नसों में बहते हुए
शताब्दियों के इतिहास की तरह
समय में ओझल वर्तमान की तरह
युग-युगों में फैले
भविष्य की तरह
भले ही तुम्हारा शरीर थम जाये
तुम्हारी हड्डियाँ तुम्हारा बोझ
उठाने से मना कर दें
तुम्हारा ह्रदय धड़कने से
इनकार कर दे
भले ही तुम संसार को
उसके पार्थिवत्व को
किसी भी पल अस्वीकार कर दो
पर मैं तुम्हारा मूर्त स्वीकार हूँ
तुम्हारा पूर्ण प्राकट्य हूँ
मेरे भीतर तुम उपस्थित रहोगे
तब भी, जब नहीं होगे
किसी जागतिक दृश्य में
मां ने तुम्हारी प्रतिकृति में
जो नवचैतन्य सौंपा था तुझे
उसकी प्रथम श्वांस के साक्षी हो तुम
तुम्हारी बाँहों में अनंत
अंधकार से मुक्ति पाई मैंने
अपनी अजस्र निश्छलता से
सींचकर तुमने मनुष्यत्व दिया मुझे
जब तक आसमान के नीचे
मनुष्य होगा, मैं हूँगा, तुम होगे
मैं जब कभी हताश होता हूँ
थक जाता हूँ, असहज हो जाता हूँ
अपने कंधे पर महसूस करता हूँ
तुम्हारे खुरदरे हाथ
और निकल आता हूँ
नैराश्य के विकट व्यूह से
जीवन का पहिया हाथों में
सम्हाले युद्ध को तत्पर
अभिमन्यु की तरह
जब कभी आत्मीय प्रवंचनाएं
क्रोधाविष्ट हो घेरतीं हैं मुझे
छल-छद्म के साथ
उपस्थित होतीं हैं
तुम्ही मुझे मृत्यु से संवाद
की शक्ति सौंपते हो
और मैं यमराज से भी नहीं डरता
नचिकेता हो जाता हूँ
जब कभी संशय में होता हूँ
समरभूमि के बीच में
लडूं या मुक्ति पा लूं रण से
संघर्ष और कर्तव्य के संबंधों
को समझने में असमर्थ
हो जाता हूँ पूरी तरह
मेरे भीतर से निकलकर
सामने आ जाते हो
पटु महानायक कृष्ण की तरह
पलायन की ओर
रथ हांकने से रोक लेते हो
मेरा अर्जुन उठ खड़ा होता है
अपने गांडीव के साथ
याद आ जाता है जीवन
का आप्त वाक्य-
मामनुस्मर युद्ध च
मैं जानता हूँ तुम कुछ नहीं
कुछ भी नहीं चाहते मुझसे
पर मैं कुछ देना चाहता हूँ
सिर्फ यही है मेरे पास
लो, मैं देता हूँ वचन
तम्हे कभी आहत नहीं करूँगा
दुःख नहीं दूंगा
बना रहूँगा
तुम्हारा अभिमन्यु
तुम्हारा नचिकेता
तुम्हारा अर्जुन
**********
डॉ. सुभाष राय
तुम्हारे भाल पर
उगा रहता है अक्सर
मेरे हृदय तक
उजास किये हुए
मेरी सबसे सुन्दर
रचना भी कमजोर
लगने लगती है
जब देखता हूँ
तुम्हें सम्पूर्णता में
दिए की तरह जलते
तुम्हारे रक्ताभ नाख़ून
दो पंखडियों जैसे अधर
काले आसमान पर लाल
नदी बहती देखता हूँ मैं
सचमुच एक पूरा
आकाश होता है तुम्हारे होने में
जिसमें बिना पंख के
भी उड़ना संभव है
जिसमें उड़कर भी
उड़ान होती ही नहीं
क्योंकि चाहे जितनी दूर
चला जाऊं किसी भी ओर
पर होता वहीँ हूँ
जहाँ से भरी थी उड़ान
तुम नहीं होती तो
अपने भीतर की चिंगारी से
जलकर नष्ट हो गया होता
बह गया होता दहक कर
तुम चट्टान के बंद
कटोरे में संभाल कर
रखती हो मुझे
खुद सहती हुई
मेरा अनहद उत्ताप
जलकर भी शांत
रहती हो निरंतर
जो बंधता नहीं
कभी भी, कहीं भी
वह जाने कैसे बंध गया
कोमल कमल-नाल से
जो अनंत बाधाओं के आगे भी
रुकता नहीं, झुकता नहीं
कहीं भी ठहरता नहीं
वह फूलों की घाटी में
आकर भूल गया चलना
भूल गया कि कोई और भी
मंजिल है मधु के अलावा
सुन रही हो तुम
या सो गयी सुनते-सुनते
पहले तुम कहती थी
मैं सो जाता था
अब मैं कह रहा हूँ
पर तुम सो चुकी हो
उठो, जागो और सुनो
मुझे आगे भी जाना है.
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10 comments:
दोनों ही रचनाएँ बहुत पसंद आई. शानदार!
डॉ सुभाष राय की दोनों कविताएँ प्रभावशाली हैं।
Dr.Subhash Rai kee sashakt lekhni
se niklee do sashakt kavitaaon
ne mun - mastishk par prabhaav
chhodaa hai.Bahut dinon ke baad
achchhee kavitayen padhne kaa
saubhagya prapt huaa hai.Badhaee
aur shubh kamna
sunder rachnon ke liye subhash jee ko sdhuwad
aabhar
राय सर की दोनों रचनाएं अद्भुत हैं मैं छन्द मुक्त रचनाओं को कविता मानने में असहज महसूस करता हूं, लेकिन जब राय सर की कविताओं से गुज़रता हूं तो अपने आस-पास की भूमि से स्वयं को गायब पाता हूं. जुड़ा हुआ पाता हूं उससे जो कविता के सिवा और कुछ भी नहीं. खुद को पाता हूं उस नदी के मध्य में जिसके पार जाने की शक्ति मुझमें नहीं. दोनों कविताओं से गु़जरते हुए ऐसा लगा जैसे पूरा युग अपनी समस्त संपूर्णताओं के साथ उपस्थित हो गया हो.
दोनों ही कवितायें संवेदना को छूती लगीं.. आभार सर..
ucch koti ki rachanayen...saadar
bahut hii prabhavshalii kavitaen hain Subhash rai jee ko badhai deta hoon
राय साहब की रचनाओं में साहित्य, दर्शन, अध्यात्म और भाव प्रवणता के दर्शन एक साथ होते हैं. आशा है और सुन्दर रचनाएँ आगे भी पढने को मिलती रहेंगी.
Madan Mohan 'Arvind'
" मेरे भीतर तुम उपस्थित रहोगे "
मन को भिंगो गयी रचना...
एक परिपाटी सी है कि माता के लिए ही अधिक लिखा जाता है...परन्तु इस रचना ने श्रद्धानत कर दिया,विभोर कर दिया...पिता या परम पिता..दोनों के लिए यह उतनी ही समीचीन है...
आपके कलम को नमन है...
दूसरी कविता 'अब सुनो तुम'...ने भी भावुक कर दिया...
दोनों ही रचनाएं अद्वितीय...
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