ग़ज़ल
समीर लाल ‘समीर’
मुद्दतों बाद उसे दूर से जाते देखा
धूप को आज यूँ ही नज़रें चुराते देखा
मुद्दतों बाद हुई आज ये कैसी हालत
आँख को बेवज़ह आंसू भी बहाते देखा
मुद्दतों बाद दिखे हैं वो जनाबे आली
वोट के वास्ते सर उनको झुकाते देखा
मुद्दतों बाद खुली नींद तो पाया हमने
खुद को सोने का बड़ा दाम चुकाते देखा
मुद्दतों बाद जो लौटा हूँ मैं घर को अपने
अपने ही भाई को दीवार उठाते देखा
मुद्दतों बाद कोई आने लगा अपने सा
रात भर ख्वाब में मैंने उसे आते देखा
मुद्दतों बाद किसीने यूँ पुकारा है "समीर"
खुद ही खुद से पहचान कराते देखा
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समीर लाल ‘समीर’
मुद्दतों बाद उसे दूर से जाते देखा
धूप को आज यूँ ही नज़रें चुराते देखा
मुद्दतों बाद हुई आज ये कैसी हालत
आँख को बेवज़ह आंसू भी बहाते देखा
मुद्दतों बाद दिखे हैं वो जनाबे आली
वोट के वास्ते सर उनको झुकाते देखा
मुद्दतों बाद खुली नींद तो पाया हमने
खुद को सोने का बड़ा दाम चुकाते देखा
मुद्दतों बाद जो लौटा हूँ मैं घर को अपने
अपने ही भाई को दीवार उठाते देखा
मुद्दतों बाद कोई आने लगा अपने सा
रात भर ख्वाब में मैंने उसे आते देखा
मुद्दतों बाद किसीने यूँ पुकारा है "समीर"
खुद ही खुद से पहचान कराते देखा
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ग़ज़ल
समीर लाल ‘समीर'
अकेले चले हो किधर धीरे-धीरे
युं ही क्या कटेगा सफ़र धीरे-धीरे
दुआओं की खातिर किये थे जो सज़दे
सभी को दिखेगा असर धीरे-धीरे
पिलाई है तुमने जो आँखों से मदिरा
चढ़ेगी वो बन के ज़हर धीरे-धीरे
रहूँगी मैं ज़िंदा सजन बिन तुम्हारे
चलेगी ये सांसें मगर धीरे-धीरे
नहीं मैंने सोचा, जुदा तुमसे होकर
कि बरपेगा ऐसा क़हर धीरे-धीरे
उसे बोलते हैं नज़र का मिलाना
खुशी से मिली हो नज़र धीरे-धीरे
कभी तो कहो प्यार से बात मन की
बना लो मुझे हमसफ़र धीरे-धीरे
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समीर लाल ‘समीर'
अकेले चले हो किधर धीरे-धीरे
युं ही क्या कटेगा सफ़र धीरे-धीरे
दुआओं की खातिर किये थे जो सज़दे
सभी को दिखेगा असर धीरे-धीरे
पिलाई है तुमने जो आँखों से मदिरा
चढ़ेगी वो बन के ज़हर धीरे-धीरे
रहूँगी मैं ज़िंदा सजन बिन तुम्हारे
चलेगी ये सांसें मगर धीरे-धीरे
नहीं मैंने सोचा, जुदा तुमसे होकर
कि बरपेगा ऐसा क़हर धीरे-धीरे
उसे बोलते हैं नज़र का मिलाना
खुशी से मिली हो नज़र धीरे-धीरे
कभी तो कहो प्यार से बात मन की
बना लो मुझे हमसफ़र धीरे-धीरे
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आगामी अंक : शुक्रवार, १३ अगस्त २०१०
आकाशवाणी दिल्ली के केंद्र निदेशक
डॉ लक्ष्मी शंकर वाजपेयी की ग़ज़लें
44 comments:
उसे बोलते हैं नज़र का मिलाना
खुशी से मिली हो नज़र धीरे-धीरे
कभी तो कहो प्यार से बात मन की
बना लो मुझे हमसफ़र धीरे-धीरे
Bahut hee sundar , laajabaab !
मुद्दतों बाद....
आम तौर पर ग़ज़ल में इसे रदीफ़ के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है...
सच ये है कि समीरलाल जी बहुप्रतिभा के धनी हैं, जिन्होंने ग़अज़्ल की शुरूआत के लिए ’मुद्दतों बाद’ का प्रयोग हर शेर में सफ़लतापूर्वक किया है.
दोनों ग़ज़लों के सभी अश’आर काबिले-दाद हैं.
समीर लाल जी की ये पंक्तियाँ हक़ीक़त का आईना हैं-मुद्दतों बाद जो लौटा हूँ मैं घर को अपने
अपने ही भाई को दीवार उठाते देखा ।
-एकदम गागर में अनुभव सागर भर दिया ।
सचमुच बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं समीर जी ....दोनों लाजबाब ग़ज़लों के लिए बधाई !
मुद्दतों बाद ऐसी उम्दा ग़ज़ल पायी हमने-
कि किसी को बहर में दर्द सजाते देखा !
SAMEER LAL SAMEER KEE DONON GAZALEN
BAHUT ACHCHHEE HAIN. " MUDDATON
WAALEE " GAZAL MEIN EK NAAYAA
ANDAAZ HAI. SAMEER BHAI, AAPNE
GAZAL KE SAATON SHERON MEIN
" MUDDATON BAAD " KAA ISTEMAAL
JIS KHOOBEE SE KIYA HAI,VAH KHOOB
HAI.BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA.
हर शेर.............लाजवाब
आपकी दो गजलें पढ़ कर दिल ये गदगद हो गया।
जिन ख़्यालों से था, लौटा फिर उन्हीं में खो गया॥
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
Sameer bhai tum sachmuch rachana kee duniyaa ke laal ho. Pran bhaai ne jo kahaa main poori tarah sahmat hoon. bahut achchhee gazale.
हर शेर.............लाजवाब
क्या कहूँ ………… समीर जी तो समीर जी ही हैं …………………।दोनो गज़लें बेइन्तिहा खूबसूरत और हर शेर कमाल का है …………………बस हम तो पढकर लाजवाब हो जाते हैं।
kya kahane hai ershad
समीर जी कि लेखनी के तो हम कायल हैं ..गज़ब का ख्याल होता है रचनाओं में ..
दोनों ही गज़ल बहुत उम्दा हैं .
समीर जी हमेशा ही पढ़ा है , ग़ज़ल हो , नज़्म हो ये फिर कोई ब्यंग कमाल का लिखते हैं पहली रचना में मुद्दतों से जो नया रूप दिया है ग़ज़ल को वो काबिलेगौर है ... दोनों ही रचनाएँ बढ़िया हैं ...
बधाई
अर्श
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
समीर जी कि दोनों गज़लें बहुत खूबसूरत हैं ....
मुद्दतों बाद जो लौटा हूँ मैं घर को अपने
अपने ही भाई को दीवार उठाते देखा
मन को छू गयी यह बात ..
आई उडन तश्तरी उडकर कनाडा से ब्रीटेन
समीर लाल की कविताएँ हैँ प्राकृति की देन
सरल सहज बोलचाल की भाषा में समीर लाल का सृजन इसलिए ही सीधे संवाद स्थापित कर लेता है ...
बहुत उम्दा !
मुद्दतों बाद खुली नींद तो पाया हमने
खुद को सोने का बड़ा दाम चुकाते देखा
मुद्दतों बाद जो लौटा हूँ मैं घर को अपने
अपने ही भाई को दीवार उठाते देखा
आज के परिवेश को बखूबी प्रस्तुत किया है. दोनों ही गज़लें बहुत सुन्दर हैं लेकिन ये पंक्तियाँ कुछ अलग कह गयीं.
दोनों गज़लें बहुत सुन्दर हैं
सुन्दर प्रस्तुति।
अकेले चले हो किधर धीरे-धीरे
युं ही क्या कटेगा सफ़र धीरे-धीरे
दुआओं की खातिर किये थे जो सज़दे
सभी को दिखेगा असर धीरे-धीरे
हमेशा की तरह अति लाजवाब गजलें. शुभकामनाएं.
रामराम
बहुत उम्दा और ख़ूबसूरत क़लाम को फूल पेश करता हूँ-
मुद्दतों बाद नज़र आई गुलों की रौनक
मुद्दतों बाद ग़ज़ल शाख़ पे आते देखा
भाई वाह समीर जी!
are wah sameer bhai... maza aa gaya... bahut khoob.. ati sundar...
with love..
मुद्दतों बाद खुली नींद तो पाया हमने
खुद को सोने का बड़ा दाम चुकाते देखा
बहुत ख़ूब समीर जी
मुद्दतों बाद जो लौटा हूँ मैं घर को अपने
अपने ही भाई को दीवार उठाते देखा
अल्लाह से यही दुआ है कि ऐसी दीवारें उठने से पहले ही गिर जाएं
अच्छी ग़ज़लों के लिये बधाई
आप सभी के इस असीम स्नेह का बहुत आभारी हूँ. आगे लिखने का हौसला मिलता है. स्नेह बनाये रखिये.
दुआओं की खातिर किये थे जो सज़दे
सभी को दिखेगा असर धीरे-धीरे
kya baat hai bahut khubsurat gajal likhi hain sameer ji bahut2 badhai..ye pankitya bahut pasnd aayi...
आँधियाँ जहाँ रोज़ कहर बरपाती हैं,
आपको वहाँ बेखौफ घर बनाते देखा।
सम्हलता गया ज्यों चिरागों का जज़्बा,
उतरता गया वह कहर धीरे धीरे।
समीर भाई ग़ज़ल कहें और वो सबसे हट के न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता...मुद्दतों बाद ऐसी ग़ज़लें पढने को मिली हैं जो दिल के दरवाजे को ठेल कर नहीं उखड कर अन्दर आ गुसी हैं...मुद्दतों का बाद का इतना सुन्दर प्रयोग सच मुद्दतों बाद हुआ है...और धीरे धीरे रदीफ़ वाली ग़ज़ल का असर फ़ौरन होता है याने असर के मामले में वो अपने रदीफ़ से बिलकुल जुदा है...इसे पढ़ते पढ़ते पुराणी फिल "एक राज़ " का मशहूर गीत "उठेगी तुम्हारी नज़र धीरे धीरे...मोहब्बत करेगी असर धीरे धीरे " याद आ गया.
आप को भी सुनना है ये गीत...यहाँ क्लिक कीजिये और सुनिए...अररर सुनिए भी और देखिये भी....
http://www.youtube.com/watch?v=8LCgl8afw4k
नीरज
वाह...आनंद आ गया...
दिल को छूती बेहतरीन गज़लें....
Sameer bhai ka apna hi andaaz hai. aapki prastuti ko pranaam...
मुद्दतों बाद जो लौटा हूँ मैं घर को अपने
अपने ही भाई को दीवार उठाते देखा
dil ko chhoo lene vali ghazalen
समीर जी,
दोनों गज़लें एक गंभीर प्रभाव अंतर्मन पर छोड़ जाती है आपके लेखन का विश्लेषण कर पाना ऐसे भी काफी दुरूह कार्य है. हमें तो उसके पढ़ने में जो आनंद मिलता है वह एक अजब अनुभूति देता है.
कुछ पंक्तियाँ सो बहुत लाजबाब बन पड़ी हैं
"मुद्दतों बाद खुली नींद तो पाया हमने
खुद को सोने का बड़ा दाम चुकाते देखा "
मुझे तो ऐसा लग रहा है की देर से पढ़ी ग़ज़ल तो भी काफी दाम चुकाना पड़ा इसके स्वाद को मिस करने का
बहुत बहुत बधाई
रचना
rachanaravindra.blogspot.com
bahut khub! bahut gahari baat kah gaye
Pahale meri Daad kabool karein Sameer ji. har sher apne aakar mein ek aks liye hue hai..
suni baat hi baat mein baat teri
jise sunke utra hai dar dheere dheere
Devi nangrani
आपके ब्लॉग को आज चर्चामंच पर संकलित किया है.. एक बार देखिएगा जरूर..
http://charchamanch.blogspot.com/
मुद्दतों बाद जो लौटा हूँ मैं घर को अपने
अपने ही भाई को दीवार उठाते देखा
Phir se padne par aur padne ko man karta hai. Bahut hi scha sher hai..Daad ke saath
क्या बात है समीर साहब। बेहतरीन ग़ज़लें। बधाई।
आपकी ग़ज़लें पढकर बहुत अच्छा लगा...
बहुत खूबसूरत.....
आभार
आपको बधाई समीर जी......
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने...........
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी
कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
http://vangaydinesh.blogspot.com/
jnm din bhut bhu mubark ho bhaaijaan . akhtar khan akela kota rajsthan
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें....
sawai singh rajpurohit agra
बहुत सुन्दर
आपके ब्लोग पर प्रथम बार आया हूं
मुद्दतों बाद जो लौटा हूँ मैं घर को अपने
अपने ही भाई को दीवार उठाते देखा
बहुत खूबसूरत दोनो ही ग़ज़लें.....
Superb poems and i love these lines, Now i am going to copy these lines. Thanks a lot for sharing these awesome lines here.
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