Tuesday, 22 November 2011

महावीर जी जैसा दूसरा कोई हो नामुमकिन है...


'चेहरे पर सत्य का तेज़, हर वक़्त होंठों पर खेलने वाली मधुर मुस्कान, वाणी में ओज, हृदय में शत्रुओं को भी क्षमा करके स्थान देने की क्षमता, दुनिया को भलाई, भलाई और सिर्फ़ भलाई देने की चाह....' किशोरावस्था में जब कहानियों के नायक को इस तरह से महिमामंडित किया जाता तो लगता था कि डींगे हांकी जा रही हैं वरना आज के युग में कौन इस तरह से होता है. जो भी इस तरह की सोच रखता होगा वह आदरणीय श्री महावीर जी से मिलने के बाद अपने आप को एक बार चिकोटी काट कर यह एहसास जरूर दिलाता कि वह कहानी की दुनिया में नहीं बल्कि इसी दुनिया में है. जी यह सब मैंने ख़ुद महसूस किया. महावीर जी से मेरी ज्यादा तो नहीं पर करीब १७-१८ बार फोन पर बात हुई मगर जब भी हुई हमेशा एक-सवा घंटा के करीब ही हुई. कोई न कोई इस तरह का विषय ही उपलब्ध हो जाता कि उनकी राय जानना जरूरी लगता. भले ही उनसे मुलाक़ात एक ही मुमकिन हो सकी( दूसरी मुलाक़ात के लिए उन्होंने ही रोक दिया था, कारण अभी बताता हूँ) लेकिन वह मिलना ऐसा था कि आजीवन चंद घंटों की वह मुलाक़ात नहीं भूल सकता.
हालांकि ब्लॉग लिखना शुरू करने के कुछ दिन बाद से ही महावीर जी के संपर्क में आ गया था लेकिन उनसे मिलने का संयोग अप्रैल २०१० में बना, जब मैं एक मित्र से मिलने बेलफास्ट से लन्दन गया. जाने से पहले ही मैंने श्री महावीर जी से बात कर ली थी कि मैं आपसे मिलने आना चाहता हूँ. कुछ महीनों से फोन पर संपर्क के कारण महावीर जी मुझे अच्छे से जानने तो लगे ही थे इसलिए संभवतः वह भी मिलने के लिए उतने ही उत्सुक थे जितना कि मैं. जब मैं उनके घर मिलने पहुंचा तो महावीर जी ने ही दरवाजा खोला. उनके साथ कई विषयों पर बात हुई, उनके लन्दन आने के पहले दिन से लेकर उस दिन तक की लगभग सारी प्रमुख बातें उन्होंने खुली किताब की तरह मेरे सामने रख दीं. मेरी जगह कोई भी होता तो उनकी सादगी से वह भी उतना ही प्रभावित होता जितना कि मैं हुआ. जब रात होने को हुई तो बेमन से विदा लेना पड़ा.. मुझे अच्छे से याद है कि घर से चलते वक़्त उन्होंने कहा था कि, ''तुम्हारी तस्वीर देख कर तुम्हारी शक्ल सिल्वेस्टर स्टालिन से मिलती हुई लगती थी, मगर सामने देखकर....''
और मैंने टोका था कि, '' हाँ तो सच कहिये न कि सामने से देखने पर उतना सुन्दर नहीं हूँ..'' और उन्होंने मुझे गले से लगा लिया था. मुझे नहीं पता था कि प्रत्यक्ष रूप से वह उनसे मेरी प्रथम और आख़िरी भेंट साबित होने वाली है.
लौट कर जब बेलफास्ट पहुंचा तो बातों का सिलसिला बढ़ता चला गया और एक दिन उन्होंने मुझे बताया कि नेहरू केंद्र में उनकी कहानी 'विरासत' का पाठ होना है जिसके लिए उनकी इच्छा है कि मैं उनकी कहानी पढूं.. काफी समय से मंच से दूर रहने की वजह से मैंने उनसे जब क्षमा मांगनी चाही तो उनका कहना था कि,
''मैंने तुम्हारा प्रोफाइल देख लिया है, तुम्हारा रंगमंच का अभिनय यहाँ काम आएगा और फिर मुझे तुम पर पूरा भरोसा है.''
उनका भरोसा ही था जिसने मुझे हौसला दिया और मैंने अपनी कोशिश भर उस कहानी का जितना बेहतर पाठ कर सकता था, किया. वो महावीर जी ही थे जिन्होंने ब्रिटेन की हिन्दी साहित्य की कई बड़ी हस्तियों से मेरा परिचय कराया और मुझ जैसे अनाड़ी को लोगों की नज़र में लाये.
उनके व्यक्तित्व का एक अहम् पक्ष था कि वह किसी भी कार्य को करने के बाद उसका श्रेय नहीं लेना चाहते थे, चाहते थे तो सिर्फ़ लोगों को आगे बढ़ाना. मैं जब कहानी पाठ के लिए लन्दन गया तो आदरणीय महावीर जी ने लन्दन तक आने-जाने का पूरा व्यय, मुझे पहले से बताये बिना मेरे पते पर चेक बनाकर भेज दिया. मैंने जब वह वापस करना चाहा तो उनका यही कहना था कि,
''दीपक, मेरे लिए तुम राज(उनके पुत्र) से कम नहीं हो.. क्या मैं अपने बेटे के लिए इतना भी नहीं कर सकता? वैसे भी तुम्हारा अभी छात्र जीवन है, तुम्हे इनकी आवश्यकता पड़ सकती है.''
साथ ही यह हिदायत दी थी कि इस बात का पता किसी को भी न चले. महावीर जी मैं माफी चाहता हूँ कि आज वह वादा तोड़ रहा हूँ..
उन्होंने मुझे दूसरी बार मिलने से इसलिए मना कर दिया था कि उस समय उन्हें 'आँत का इन्फेक्शन' हो रखा था और इसलिए कि वह इन्फेक्शन मुझको न हो जाए उन्होंने अगली बार स्वस्थ होने पर मिलने का वादा करके मुझे वापस बेलफास्ट जाने को कहा था. मगर यह दुर्भाग्य ही रहा कि फिर वह वापस ठीक न हो सके और वह वादा वादा ही रह गया..

१७ नवम्बर २०१० को शाम के वक़्त मेरे पास एक अनजान नंबर से फोन आया, स्वर बहुत दुखी था.. लगा कि महावीर जी हैं लेकिन वह महावीर जी नहीं बल्कि उनके बेटे श्री राज शर्मा भाई थे जिनकी आवाज़ बिलकुल महावीर जी की तरह ही है. राज भाई ने बताया कि, '' अभी ४-५ मिनट पहले डैड नहीं रहे, वो चाहते थे कि यह बात जल्द से जल्द आपको बताई जाए..''. अपने प्रति उनके स्नेह को देख जो आंसू निकलना शुरू हुए तो बड़ी देर लगी फिर उन्हें थमने में. निश्छल भाव से मुझ पर स्नेह रखने वाली एक और पुण्यात्मा भौतिक रूप से यह दुनिया छोड़ चुकी थी. वह दिन मेरे लिए अपनी अब तक की ज़िंदगी के सबसे दुःख भरे दिन में से एक था.
मैं यह तो नहीं कहता कि दुनिया में भले आदमी नहीं हैं लेकिन यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि आदरणीय महावीर जी जैसा दूसरा कोई हो यह नामुमकिन है.

दीपक मशाल

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

स्नेह और आशीर्वाद एक स्थायी घर बना लेता है।

Mahendra Dawesar 'Deepak said...

दीपक जी,
आप बहुत भाग्यशाली हैं. आप एक बार महावीर जी से मिल तो लिए. प्राण जी ने उनसे मेरा परिचय शायद इ-मेल द्वारा अथवा फ़ोन से करवाया था. उनसे दो एक बार फ़ोन पर ही बातें हुई थीं. मैं Croydon का निवासी कहानीकार हूँ पर लघुकथा नहीं लिखता. प्राण जी और महावीर जी के प्रोत्साहन के बाद मैंने एक लघुकथा 'त्रिशूल' भेजी थी जो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर ली थी. हालांकि वे Finchley में रहते थे और मेरे समधी का घर भी वहीँ है किन्तु मेरा दुर्भाग्य समझिये या मेरी बेवकूफी कि मुझे उनसे मिलने का सौभग्य प्राप्त नहीं हुआ. उनके विषय में आज जो भी मैं पढ़ रहा हूँ, सचमुच पछता रहा हूँ.

महेंद्र दवेसर 'दीपक'

Dr. Sudha Om Dhingra said...

दीपक आप का संस्मरण पढ़ कर ऐसा लगा कि मैं भी महावीर जी से मिल ली |आप सौभाग्य शाली हैं जिन्होंने अन्तिम दिनों में उनसे आशीर्वाद पाया |

Udan Tashtari said...

आदरणीय महावीर जी जैसा दूसरा कोई हो यह नामुमकिन है.


-बिल्कुल सहमत....यादों को नमन!!!

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

आ. महावीर जी के मन में आप के प्रति स्नेह और आप के अन्तर्मन में उन के लिए अगाध श्रद्धा अप्रतिम है। ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें। आप का यह साहित्यिक प्रयास सहज वंदनीय है।