Tuesday 29 November 2011

दोहा मुक्तिका---- संजीव 'सलिल'


दोहा मुक्तिका
यादों की खिड़की खुली...
संजीव 'सलिल' *








यादों की खिड़की खुली, पा पाँखुरी-गुलाब.
हूँ तो मैं खोले हुए, पढ़ता नहीं किताब..

गिनती की सांसें मिलीं, रखी तनिक हिसाब.
किसे पाता कहना पड़े, कब अलविदा जनाब..

हम दकियानूसी हुए, पिया नारियल-डाब.
प्रगतिशील पी कोल्डड्रिंक, करते गला ख़राब..

किसने लब से छू दिया पानी हुआ शराब.
मैंने थामा हाथ तो, टूट गया झट ख्वाब..

सच्चाई छिपती नहीं, ओढ़ें लाख नकाब.
उम्र न छिपती बालभर, मलकर 'सलिल' खिजाब..

नेह निनादित नर्मदा, नित हुलसित पंजाब.
'सलिल'-प्रीत गोदावरी, साबरमती चनाब..


पैर जमीं पर जमकर, देख गगन की आब.
रहें निगाहें लक्ष्य पर, बन जा 'सलिल' उकाब..

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत खूब, जनाब।

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर..

PRAN SHARMA said...

Sahaj bhaavon ke liye Salil ji ko
badhaaee aur shubh kamna .

महावीर said...

देवी नागरानी जी का ईमेल से प्राप्त सन्देश-
किसने लब से छू दिया पानी हुआ शराब.
मैंने थामा हाथ तो, टूट गया झट ख्वाब..
vaah kya gazab dha raha hai yeh sher...soch aur shabd ekakar hue hai , aisa abhaas hua hai...

अहमक़ था वो आदमी, मुंह का बड़ा मलूक
बस मजबूरी में उसे कहना पड़ा जनाब
Devi Nangrani

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

सच्चाई छिपती नहीं, ओढ़ें लाख नकाब.
उम्र न छिपती बालभर, मलकर 'सलिल' खिजाब..

आ. सलिल जी इस दोहे में 'बालभर' शब्द प्रयोग बहुत जबर्दस्त है।