Monday 9 February 2009

देस परदेस - अख़तर शीरानी (भाग २) और महावीर शर्मा की ग़ज़ल


देस परदेस

" देस से आने वाले बता" (भाग २)
अख़्तर शीरानी

जब शाम पड़े गलियों में वही
दिलचस्प अंधेरा होता है
सड़कों की धुंधली शमओं पर
सायों का बसेरा होता है
बागों की घनेरी शाख़ों में
जिस तरह सवेरा होता है
देस से आने वाले बता

क्या अब भी वहां वैसी ही जवाँ
मदभरी रातें होती हैं
क्या रात भर अब भी गीतों की
प्यार की बातें होती हैं
वो हुस्न के जादू चलते हैं
वो इश्क़ की घातें होती हैं
देस से आने वाले बता

क्या अब भी महकते मंदिर से
नाक़ूस की आवाज़ आती है (नाक़ूसः शंख)
क्या अब भी मुक़द्दस मस्जिद पर (मुक़द्दसः पवित्र)
मस्ताना अज़ाँ फर्राती है
शाम के रंगीं सायों पर
अज़मत की झलक छा जाती है (अज़मतः बुज़ुर्गी, बड़ाई)
देस से आने वाले बता

क्या अब भी वहां के पनघट पर
पनिहारियां पानी भरती हैं
अंगड़ाई का नक़्शा बन बन कर
सब माथे पे गागर धरती हैं
अपने घरों को जाते हुए
हंसती हुई चुहुलें करती हैं
देस से आने वाले बता

बरसात के मौसम अब भी वहां
वैसे ही सुहाने होते हैं
क्या अब भी वहां के बाग़ों में
झूले और गाने होते हैं
दूर कहीं कुछ देखते ही
नौउम्र दीवाने होते हैं
देस से आने वाले बता

क्या अब भी पहाड़ी घाटियों में
घनघोर घटाएं गूंजती हैं
साहिल के घनेरे पेड़ों में
बरखा की हवाएं गूंजती हैं
झींगुर के तराने जागते हैं
मोरों की सदायें गूंजती हैं
देस से आने वाले बता........ क्रमशः


*****************

जब वतन छोड़ा……

महावीर शर्मा

जब वतन छोड़ा, सभी अपने पराए हो गए

आंधी कुछ ऐसी चली नक़्शे क़दम भी खो गए


खो गई वो सौंधी सौंधी देश की मिट्टी कहां

वो शबे-महताब दरिया के किनारे खो गए


बचपना भी याद है जब माँ सुलाती थी हमें

आज सपनों में उसी की गोद में हम सो गए


दोस्त लड़ते जब कभी तो फिर मनाते प्यार से

आज क्यूं उन के बिना ये चश्म पुरनम हो गए!


किस कदर तारीक है दुनिया मिरी उन के बिना

दर्द फ़ुरक़त का लिए अब दिल ही दिल में रो गए


था मिरा प्यारा घरौंदा, ताज से कुछ कम न था

गिरती दीवारों में यादों के ख़ज़ाने खो गए


हर तरफ़ ही शोर है, ये महफ़िले-शेरो-सुखन

अजनबी सी भीड़ में फिर भी अकेले हो गए

महावीर शर्मा


आगामी अंकः
१४ फरवरीः
वैलंटाइन की मौत पर उत्सव क्यों?
१७ फरवरीः
अख़्तर शीरानी की नज़्म का अंतिम भाग
'देवी' नागरानीः मेरे वतन की ख़ूशबू'

12 comments:

Anonymous said...

AKHTAR SHIRAANEE KEE NAZM"DESH SE
AANE WAALE BATAA"KEE DOOSREE KADEE
BHEE BHAAVPOORN AUR PRABHAAVSHALEE
HAI.AANAND AA GAYAA HAI PADHKAR.
MAHAVIR JEE,AAPKEE GAZAL KE
KYAA KAHNE.AKHTAR SHIRAANEE KEE
NAZM SE KAM NAHIN HAI.EK-EK SHER
DIL MEIN UTAR GAYAA HAI.SUBAH SE
KAEE BAAR PADH GAYAA HOON.

अमिताभ श्रीवास्तव said...

bahut sundar...
aapko pad kar mujhe esa lagta he maano mujhe jiski talash thi vo mil gaya..

अमिताभ श्रीवास्तव said...

kabhi mere blog pe bhi nazare inayat ho jayegi to kuchh sikhne ko milega..aapki tippani mere liye jaruri he.

दिगम्बर नासवा said...

अख्तर जी का एक एक शब्द जैसे अपने दिल की ही पुकार हो, लाजवाब, हम विदेश में बैठे लोगों के तो आंसू हिनिकल आयें.
आपकी ग़ज़ल भी खूब सूरत है...........दिल के बहुत करीब से कही

राज भाटिय़ा said...

बहुत सूंदर लगी आप की दोनो कविता, लेकिन दुसरे वाली ने वतन की याद ताजा कर दी, धन्यवाद

vijay kumar sappatti said...

mahaveer ji ,

i am speechless . main khamosh hoon aur meri aankhen nam hai .. dono rachnao ne ajeeb se dard ko ubaar diya hai ..

aapko aur akhtar shaeb ko naman aur lekhni ko salaam.

bus , phir thoda normal hone ke baad dusara comment karunga .

अमिताभ श्रीवास्तव said...

आदरणीय महावीर जी,
आपकी टिप्पणी में मुझे जिस बात की आवश्यकता थी, वही प्राप्त हुई। दरअसल मुझे
ग़ज़ल लिखना नहीं आता. ओर न ही कविताये. मगर शब्दों को कविता में तो बाँध देता हूँ किन्तु ग़ज़ल में ये नहीं हो पाता. मैं जानता हूँ कि ग़ज़ल लिखना आसान काम नहीं. मैं तो पत्रकार हूँ ओर लेखादि खूब लिखता हूँ. चूंकि ब्लॉग पर लेख लिखने का न तो समय है ओर ना ही उसे इमानदारी से कोई पड़ने वाला है .इसलिए शब्दों को कविता का रूप देकर अपने ब्लॉग प्रेम को थामे रहता हूँ. पढ़ना ओर लिखना मेरी पसंद है. वो जारी रहता है. किन्तु हां ग़ज़ल अब तब ही लिखूंगा जब इसका सामान्य ज्ञान अर्जित कर लू. ज्ञान भी है. पर मेने कहा ना ग़ज़ल लिखना आसान काम नहीं. प्रयास तो कर ही सकता हूँ. प्रयास करूंगा भी. आप जेसे जब मुझे मार्गदर्शन देंगे तो पद्य लिखने का मज़ा भी बढेगा . आपसे उम्मीद है आप मेरे ब्लॉग पर आने का कष्ट करते रहेंगे ओर अपनी राय से मेरे शब्दों की बाधाये दूर करते रहेंगे. आपने जिस अंदाज़ में मेरी तारीफ़ करते हुए बात की है उससे आपका विशुध्ध बड़प्पन छलकता है.
धन्यवाद. आभारी हूँ आपका.

गौतम राजऋषि said...

जाने कितने दिनों बाद आपने अपनी गज़ल लगायी है इस ब्लौग पर। शुक्रिया महावीर जी,बहुत शुक्रिया...ये शेर बहुत भाया है "किस कदर तारीक है दुनिया मिरी उन के बिना/दर्द फ़ुरक़त का लिए अब दिल ही दिल में रो गए" और फिर ये भी "बचपना भी याद है जब माँ सुलाती थी हमें/आज सपनों में उसी की गोद में हम सो गए"

और अख्तर शीरानी साब के देस-परदेस के इस दूसरे हिस्से का क्या कहना...

महावीर said...

अख़्तर शीरानी की नज़्म के शब्द हर वक़्त मस्तिष्क में घूमते रहते हैं-
"ओ देस से आने वाले बता!"
बहुत ही भावपूर्ण नज़्म है।
महावीर

कडुवासच said...

बचपना भी याद है जब माँ सुलाती थी हमें
आज सपनों में उसी की गोद में हम सो गए
... दिल को छूने वाली पंक्तियाँ हैं।

Dev said...

बचपना भी याद है जब माँ सुलाती थी हमें
आज सपनों में उसी की गोद में हम सो गए
... दिल को छूने वाली पंक्तियाँ हैं।

Really great sir...nice poem
Regards

Anonymous said...

MANNIY MAHAVIR JI APKI KI RACHNA BAHUT KHOOB HAI SEEDHA DIL KO HILA DETI HAI SIR MERA BHI BLOG HAI KRIPYA AAP PADH KE US MEIN MAUJOOD GALTIYON KO BATAYE WWW.ASHWANIDEV.BLOGSPOT.COM
SIR MERI UMAR 19 SAAL HAI MUJHE AUR ACHA LIKHNE KA MARG BATAYE
THANK,S