Wednesday, 18 March 2009

पुरानी यादें - प्राण शर्मा की दो ग़ज़लें


प्राण शर्मा
(यह ग़ज़लें १९५८ में लिखी गई थी)

जीता हूं मेरे दोस्त अब किस बेदिली से मैं
करता हूं इसका ज़िक्र नहीं हर किसी से मैं


ख़ामोशियां भी चाहिए कुछ तो कभी कभी
सीखा हूं एक बात ये भी ज़िन्दगी से मैं


अच्छी तरह पता है मुझे प्यार की गली
गुज़रा था एक बार कभी इस गली से मैं


मैंने सुना है आपको कलियों से प्यार है
लो आपको मनाता हूं दिल की कली से मैं


उपदेशकों की बात को मानूं तो किस तरह
संबंध तोड़ सकता नहीं ज़िन्दगी से मैं


इतना भी प्यार मुझ पे बरसा घड़ी घड़ी
चुंधिया जाऊं इसकी कहीं रोशनी से मैं

****************


मज़हब के नाम पर दिलों से सब क़रीब हैं
मेरी गली के लोग भी कितने अजीब हैं

वे दोस्त, मेरे दोस्त ज़रूरी तो ये नहीं
तेरे क़रीब भी हों जो मेरे क़रीब हैं

उस माँ की खुशदिली का ठिकाना पूछिए
जिस माँ के बाल-बच्चे सभी खुशनसीब हैं

इसकी हरेक चीज़ मुझे तो अजीज़ है
माना कि जग के ढंग अजीबो-ग़रीब हैं

महफूज़ हैं वे प्राण ख़बर तुझ को भी तो हो
सारे मकाँ जो तेरे मकाँ के क़रीब हैं
प्राण शर्मा
**************

30 comments:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आ. प्राण भाई साहब ,
बहुत सुँदर भावाभिक्यक्तिै है ..सभी लफ्ज़ मानोँ सीधे रुह को छूते हुए
दरिया के पानी तरह बहते हुए से लगे ..
आदरणीय महावीर जी का शुक्रिया और आप यूँ ही लिखते रहेँ...
स स्नेह,
- लावण्या

कडुवासच said...

बेहद खूबसूरत, शुक्रिया।

राजीव रंजन प्रसाद said...

आदरणीय प्राण सर,

आपकी ग़ज़लों की गहरायी और शिल्प का मैं कायल हूँ। आपसे बहुत सीखने को मिलता है।

Sushil Kumar said...

आदरणीय श्री प्राण शर्मा जी,प्रणाम।
आपकी गजलों के रूप और वस्तु के तो हम सब कायल ही हैं।आप गजल के पुरोधा हैं। मुझे गजल लिखनी आती नहीं,पर आदतन पढ़ता चाव से हूँ।जब आप १९५८ में इतनी सधी हुई गजल लिखते थे,तो अब की बात ही क्या करूँ,..और है,उम्दा है!मुझ्रे भी गजल लिखने का गुर बताईए। बतायेंगे ना?आभार।...सुशील कुमार

"अर्श" said...

विशिष्ठ महावीर जी और ग़ज़ल पितामह प्राण शर्मा जी को मेरा प्रणाम,
मैं अदना अब क्या बडाई करूँ पितामह की कही गयी ग़ज़लों पे..
ख़ामोशियां भी चाहिए कुछ तो कभी कभी
सीखा हूं एक बात ये भी ज़िन्दगी से मैं...

ये एक शे'र ही काफी है मगर मैं इस कदर हूँ के मेरे पास प्रशंसा करने के लिए शब्द नहीं है....
इनकी ग़ज़लों का मुरीद हूँ और आपकी प्रस्तुति का ...
आभार..
अर्श

seema gupta said...

आदरनीय प्राण जी, आपके लिखे शब्द अपने आप में एक खुद ही पहचान है ......जिन्दगी को इतनी सादगी से ब्यान करना आपकी कला है ......ये दोनों गजले कितनी पुरानी सही मगर इनमे जीवन का वही रूप और नजिरया है जिनसे हर दिन का गुजर होता है....ये दोनों शेर मुझे ख़ास एहसास से रूबरू का गये .....पहले वाला इसलिए क्यूंकि "जिन्दगी से इंसान बहुत कुछ सीखता है.....मगर खामोशी की जरूरत????? ये बात कितनी ख़ास हो जाती है......जब जिन्दगी ये सीखा जाये की जरूरत कभी खामोशी की भी होती है....ये सिर्फ एक कवि ह्रदय ही शायद समझ सकता है.....और दुसरा " उस माँ की ख़ुशी से छलकता ये शेर कितनी ठंडक पहुंचाता है दिल को..."

ख़ामोशियां भी चाहिए कुछ तो कभी कभी
सीखा हूं एक बात ये भी ज़िन्दगी से मैं

उस माँ की खुशदिली का ठिकाना न पूछिए
जिस माँ के बाल-बच्चे सभी खुशनसीब हैं

Regards

दिगम्बर नासवा said...

महावीर जी
आपका ब्लॉग खूबसूरत हीरों का खजाना है. एक से बढ़ केर एक नायाब चीजें यहाँ मिलती हैं....ग़ज़ल, गीत, परिचय सब बहुत खूब. प्राण साहब की ये ग़ज़ल

अच्छी तरह पता है मुझे प्यार की गली
गुज़रा था एक बार कभी इस गली से मैं

जीवन का निचोड़.....जिंदगी का फलसफा है इस पूरी ग़ज़ल में

मज़हब के नाम पर दिलों से सब क़रीब हैं
मेरी गली के लोग भी कितने अजीब हैं

एक ऐसा कडुआ सच भी है इस ग़ज़ल में....और भोली से मुस्कान, कोमल सी अभिव्यक्ति भी है इसमें

कंचन सिंह चौहान said...

वे दोस्त, मेरे दोस्त ज़रूरी तो ये नहीं
तेरे क़रीब भी हों जो मेरे क़रीब हैं


उस माँ की खुशदिली का ठिकाना न पूछिए
जिस माँ के बाल-बच्चे सभी खुशनसीब हैं

bahut khoob.....!

doosari gazal vishesh pasand aai..!

रश्मि प्रभा... said...

दोनों गज़लों में कुछ ख़ास है,कुछ बात है....
प्राण शर्मा जी को शुभकामनायें

श्रद्धा जैन said...

जीता हूं मेरे दोस्त अब किस बेदिली से मैं
करता हूं इसका ज़िक्र नहीं हर किसी से मैं

hmm bedili ka zikr kaha kiya jata hai



ख़ामोशियां भी चाहिए कुछ तो कभी कभी
सीखा हूं एक बात ये भी ज़िन्दगी से मैं

haan bahut sach bahut sach ............



अच्छी तरह पता है मुझे प्यार की गली
गुज़रा था एक बार कभी इस गली से मैं

kya baat kahi hai bina guzre kaise dard ka ehsaas hoga




मैंने सुना है आपको कलियों से प्यार है
लो आपको मनाता हूं दिल की कली से मैं

wah





उपदेशकों की बात को मानूं तो किस तरह
संबंध तोड़ सकता नहीं ज़िन्दगी से मैं

kamaal kaha hai




इतना भी प्यार मुझ पे न बरसा घड़ी घड़ी
चुंधिया न जाऊं इसकी कहीं रोशनी से मैं

sach pyaar agar mile to yqeen kaha hota hai

aapki ye gazal ka ek ek sher bahut abhut pasand aaya

श्रद्धा जैन said...

मज़हब के नाम पर दिलों से सब क़रीब हैं
मेरी गली के लोग भी कितने अजीब हैं
Bahut sunder

वे दोस्त, मेरे दोस्त ज़रूरी तो ये नहीं
तेरे क़रीब भी हों जो मेरे क़रीब हैं

kya baat kah di Guru ji


उस माँ की खुशदिली का ठिकाना न पूछिए
जिस माँ के बाल-बच्चे सभी खुशनसीब हैं

sach bahut sach

bahut sunder gazal aapki itni purani gazal padh kar man ko bahut khushi hui
aage bhi aapko padhne ka intezaar rahega

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

बहुत ख़ूब
.

गुज़रा था एक बार कभी इस गली से मैं
और यह भी कम नहीं
, वाह-वाह

ख़ामोशियां भी चाहिए कुछ तो कभी कभी
सीखा हूं एक बात ये भी ज़िन्दगी से मैं...

बहुत-बहुत बधाई.

सादर

द्विज

निर्मला कपिला said...

updeshakon ki baat ko maanu to kis tarah sambandh tod sakta nahi jindagi se main bahut hi lajavab abhivyakti hai dono gazalen bahut badiya hain badhai

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत शुभकामनाएं ापको.

रामराम.

Prakash Badal said...

जब प्राण जी के ग़ज़ल संसार में झाँकता हूँ तो अपनी रचनाओं को कहीं दूर-दूर तक भी खड़ा नहीं पाता वाह वाह महावीर जी प्राण जी की ये ग़ज़लें पढ़कर फिर से मन उल्लास से भर गया।

सुभाष नीरव said...

प्राण साहब की हर ग़ज़ल पढ़ने को मन करता है। ये दोनों ग़ज़लें भी खूब कही हैं प्राण जी ने। अपने आरंभिक दिनों में वह इतने अच्छे अशआर कह रहे थे, जानकर हैरत होती है। लगता है जैसे ग़ज़ल को जीया है प्राण जी ने, तभी तो ग़ज़ल पर इतनी गहराई से बात करते हैं और बहुत उम्दा ग़ज़लें कहते हैं। मेरी शुभकामनाएं !

नीरज गोस्वामी said...

ख़ामोशियां भी चाहिए कुछ तो कभी कभी
सीखा हूं एक बात ये भी ज़िन्दगी से मैं
और
वे दोस्त, मेरे दोस्त ज़रूरी तो ये नहीं
तेरे क़रीब भी हों जो मेरे क़रीब हैं

सुभान अल्लाह...बरसों पहले इतनी सादा ज़बान में इतने खूबसूरत शेर कहना किसी अजूबे से कम नहीं...ये वो दौर था जब ग़ज़ल के बड़े बड़े सूरमा अखाडे में थे और उर्दू ज़बान पर फ़ारसी हावी थी,...उन सब के बीच अपनी अलग पहचान बना कर और हिंदी के शब्दों की चाशनी मिला कर ऐसे नायाब शेर कहना बहुत बड़ी बात है...इसी से पता चलता है की आदरणीय प्राण साहेब किस पाए के शायर हैं...इश्वर से हम हमेशा ये ही दुआ करते हैं की वो हमेशा स्वस्थ और खुश रहें और हमें यूँ ही अपने फ़न से सराबोर करते रहें...
प्राण साहेब की शायरी हमारी गंगा जमनी तहजीब का जीता जागता नमूना है.
नीरज

kumar Dheeraj said...

बहुत बढ़िया गजल आपने पेश किया है । गजल का हर मक्ता लाजबाब है...पेस्ट करने के लिए शुक्रिया

Anonymous said...

आदरणीय प्राण जी,आपकी इन गजलों से गुजरते हुए महसूस हुआ कि आपने जीवन को बहुत शुरू से ही और बहुत शिद्दत से देखा-जिया है। गहरे अहसासों की सहजता ग़ौरतलब है…
आभार

Dr. Sudha Om Dhingra said...

आदरणीय प्राण साहब,
बर्षों से शब्द मेरी भावनाओं की अभिव्यक्ति रहें हैं ऐसा लगता है जैसे वे स्वयं मुझे रास्ता दिखातें हैं
पर आज आप की ग़ज़लें पढ़ कर वे भी खामोश हो गए हैं --अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए मुझे उन्हें ढूँढना पड़ रहा है --वाह साहब --आप की ग़ज़लें कालजई है --१९५८ में लिखी गईं संवेदनाएं आस पास बिखरी महसूस हो रहीं हैं--
उपदेशकों की बात को मानूं तो किस तरह
संबंध तोड़ सकता नहीं ज़िन्दगी से मैं
और
वे दोस्त, मेरे दोस्त ज़रूरी तो ये नहीं
तेरे क़रीब भी हों जो मेरे क़रीब हैं
भाषा के आडम्बर , अलंकारों के जाल बिना , सरल सादा शब्दों का समन्वय कर उत्तम बात कह दी है जो आप की विशेषता है. दोनों ग़ज़लें बहुत पसंद आई. आप से हर बार कुछ सीखती हूँ --आभारी हूँ .
सुधा

योगेन्द्र मौदगिल said...

क्या बात है.. दादा.. वाह..... मैं तो पैदा ही १९६३ में हुआ. जहां तक स्मरण है ग़ज़ल से पहला परिचय १९८१-८२ में हुआ. इस लायक कि जब किसी ने दाद दी शायद १९९४-९५ से.... आज जैसा-कैसा भी हूं लेकिन यह सोच कर अभिभूत हूं कि आपका रचनात्मक स्तर १९५८ में ऐसा था. वाह.... दादा.. वाह.... कोटिशः प्रणाम.....

vijay kumar sappatti said...

aadarniya mahaveer ji aur pran ji , namaskar ..

pran ji ki kshamta ko dekhkar main hairaan hoon . wo wakai me guruwar hai ..wah ji wah ..main sochta tha ki initial phase of writing me log utna gahara likh nahi paate hai .lekin pran ji ki rachna ne ye baat jhoot sabit kar di..

pran ji ko bahut badhai ..
aur aapko bhi bahut badhai mahaveer ji , jab bhi aap ke blog par aata hoon ,kuch naya aur behatreen milta hai .. in fact this is single place ,where i can gind everything..

aapko dil se abhinandan ..

aapka
vijay

ashok andrey said...

priya bhai pran jee aapki gajlen padin man ko vakai chhuti hain aapne 1958 men bhi bahut aachhi gajlen kahin hain inhen padna kaphi sukhad laga mein aapko in achhi gajlon ke liye badhai deta hoon

ashok andrey

गौतम राजऋषि said...

इतनी पुरानी गज़ल......और उस पर कुछ कहना उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़ !
ये हमारा सौभाग्य है और सम्मान की बत है कि प्राण जी हम जैसे अदनों को भी समय देते हैं और महावीर जी का शुक्रिया कैसे अदा हो कि वो इतनी दुर्लभ रचनायें हमें पढ़वाते हैं..
"ख़ामोशियां भी चाहिए ..." वाला शेर और "वे दोस्त, मेरे दोस्त ज़रूरी " वाला खूब भाया है।

हरकीरत ' हीर' said...

ख़ामोशियां भी चाहिए कुछ तो कभी कभी
सीखा हूं एक बात ये भी ज़िन्दगी से मैं


अच्छी तरह पता है मुझे प्यार की गली
गुज़रा था एक बार कभी इस गली से मैं

Pran ji,

Aadab. sare diggaj to pehle hi pahuch gaye hain tarif ke liye ab mai kya kahun....??

Bas itana hi kahti hun lajwab kar diya aapne...bhot khoob...!!

Vinay said...

प्राण शर्मा जी आपका ग़ज़लें पढ़ी सभी ने तारीफ़ की मेरी तो हिम्मत ही नहीं पड़ रही इससे भी हटकर क्या कहूँ?

महावीर said...

प्राण शर्मा जी ने इन दो ग़ज़लों में बसी हुई ५१ वर्ष की पुरानी यादें इस ब्लाग पर प्रकाशित
करने की अनुमति दी है जिसके लिए मैं आभारी हूं। इतनी पुरानी ग़ज़लों में ग़ज़लियत की
ख़ूबसूरती देख कर यह भी महसूस होता है कि प्राण जी में यह रचनात्मक गुण जन्मजात है। एक ज़माना था कि उर्दू की ग़ज़लों को पढ़ने के लिए लुग़ात (उर्दू शब्द कोश) की ज़रूरत पड़ती थी। देखा जाए तो प्राण जी को इसका श्रेय है कि ग़ज़ल की भाषा की क्लिष्टता से हट कर
ग़ज़ल को सर्व साधारण जन के लिए सुलभ कर दी।
एक बार फिर प्राण जी को हार्दिक बधाई देता हूं।
आप सभी लोगों को भी इस ब्लाग पर रचनाएं पढ़ने और टिप्पणियां लिखने के लिए अपना अमूल्य समय देने के लिए आभार।

एक विनती है कि टिप्पणी देते हुए Anonymous identity का प्रयोग ना करें।

KK Yadav said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्तियाँ...लाजवाब !!
__________________________________
गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ की पुण्य तिथि पर मेरा आलेख ''शब्द सृजन की ओर'' पर पढें - गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ , और अपनी राय से अवगत कराएँ !!

Anonymous said...

उस माँ की खुशदिली का ठिकाना न पूछिए
जिस माँ के बाल-बच्चे सभी खुशनसीब हैं........ वाह

महफूज़ हैं वे प्राण ख़बर तुझ को भी तो हो
सारे मकाँ जो तेरे मकाँ के क़रीब हैं....बहुत खूब

पहली गज़ल कुछ इतनी लय में लगी के पढ़ते पढ़ते पढ़ते लगा कुछ सुन रही ।
हर शेर अच्छा लगा ।

और दुसरी गज़ल भी लजावाब हमेशा की तरह

आदरणीय महावीर सर को बहुत बहुत धन्येवाद
जिनके ब्लोग पर हमेशा अच्छा पढ़ने को मिलता हैं


सादर
हेम ज्योत्स्ना

Devi Nangrani said...

Pran ji
sadar naman

aapki gazal ka har sher ek sandesh deta hai jo tajurbon ki Zubaan bhi hai

ख़ामोशियां भी चाहिए कुछ तो कभी कभी
सीखा हूं एक बात ये भी ज़िन्दगी से मैं

shayad shor mein hun unki mangon ko ansuna kar dete hai

aapko nazar chand alfaz

kahnosian bhi dard se devi pukarteeN
humsa naseeb ka koi mara nahin mila

saadar
Devi Nagrani