यू.के. के कवियों की रचनाओं की श्रृंखला में
उषा राजे सक्सेना की दो रचनाएँ:
आशंका
लगता है
फिर वही होगा
हम फिर
बटेंगे
और बिकेंगे
उन्हीं के
बाजारों में
अपनी खुदगर्जी
और मूर्खताओं के
प्रमाण बन .
वे फिर
खरीद ले जायेंगे
हमारे उभरते नौजवानों
और बुद्धिजीवियों को
हम खुली आँख
विश्व- कल्याण का
स्वप्न देखते रह जायेंगे
वे अपना भविष्य
बनाते रहेंगे
हम महादानी कर्ण
और एकलव्य की तरह
अपनी सुरक्षा
बड़े गर्व से
उनके दान-पात्र में डालते रहेंगे
वे हमें असीसते रहेंगे
हम दृष्टिहीन
धृतराष्ट्र के उत्तराधिकारी
अंधे काफिलों से
कांच और पीतल के टुकड़ों पर
लुटते रहेंगे
हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी
गर्व से सुनाते रहेंगे
उन्हें
दूध और दही की नदी में
नहाती
सोने की चिड़िया की
अनूठी कहानी
************************
सन्नाटा
सन्नाटा है
चुप सी लगी है
सब कुछ जमा हुआ सा लगता है
मन के अन्दर उग आये परदेस में
कोई झिझकते हुए भी
सांकल नहीं खटखटाता
लगता है एक पूरा का पूरा
शब्द समूह खो गया है
हवा गूंगी हो गयी है
आकाश बहरा हो गया है
दीवारें कुछ और
ठोस हो गयी हैं
खिड़कियाँ भी बंद हो गयी हैं
छत से लटकता
अकेला बल्ब
आँखें मिचमिचाता
मेरे होने न होने पर
एक जलता हुआ प्रश्न-चिन्ह
लगाता है
आँख में ठहरा हुआ आँसू
पलकों पर लटक गया है
अंगीठी में जलते हुए
लाल अंगारों से पूछती हूँ
कहीं मैं भी तो
जलता हुआ कोयला नहीं
जिसकी राख में
एक नन्ही सी
चिंगारी
तिड़कने का खामोशी से
इंतज़ार
कर रही है
********************
उषा राजे सक्सेना की दो रचनाएँ:
आशंका
लगता है
फिर वही होगा
हम फिर
बटेंगे
और बिकेंगे
उन्हीं के
बाजारों में
अपनी खुदगर्जी
और मूर्खताओं के
प्रमाण बन .
वे फिर
खरीद ले जायेंगे
हमारे उभरते नौजवानों
और बुद्धिजीवियों को
हम खुली आँख
विश्व- कल्याण का
स्वप्न देखते रह जायेंगे
वे अपना भविष्य
बनाते रहेंगे
हम महादानी कर्ण
और एकलव्य की तरह
अपनी सुरक्षा
बड़े गर्व से
उनके दान-पात्र में डालते रहेंगे
वे हमें असीसते रहेंगे
हम दृष्टिहीन
धृतराष्ट्र के उत्तराधिकारी
अंधे काफिलों से
कांच और पीतल के टुकड़ों पर
लुटते रहेंगे
हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी
गर्व से सुनाते रहेंगे
उन्हें
दूध और दही की नदी में
नहाती
सोने की चिड़िया की
अनूठी कहानी
************************
सन्नाटा
सन्नाटा है
चुप सी लगी है
सब कुछ जमा हुआ सा लगता है
मन के अन्दर उग आये परदेस में
कोई झिझकते हुए भी
सांकल नहीं खटखटाता
लगता है एक पूरा का पूरा
शब्द समूह खो गया है
हवा गूंगी हो गयी है
आकाश बहरा हो गया है
दीवारें कुछ और
ठोस हो गयी हैं
खिड़कियाँ भी बंद हो गयी हैं
छत से लटकता
अकेला बल्ब
आँखें मिचमिचाता
मेरे होने न होने पर
एक जलता हुआ प्रश्न-चिन्ह
लगाता है
आँख में ठहरा हुआ आँसू
पलकों पर लटक गया है
अंगीठी में जलते हुए
लाल अंगारों से पूछती हूँ
कहीं मैं भी तो
जलता हुआ कोयला नहीं
जिसकी राख में
एक नन्ही सी
चिंगारी
तिड़कने का खामोशी से
इंतज़ार
कर रही है
********************
अगला अंक : 21 फरवरी 2010
यू. के. से दिव्या माथुर की रचनाएं
19 comments:
सारगर्भित, विचारप्रधान सामयिक रचनाएँ. इनमें निहित तथ्यों और सच की अनुभूति जन-गण और जन प्रतिनिधि कर सके तो भविष्य उज्जवल होगा. साधुवाद.
विचारों को बहुत ही प्रभावी तरीके से उतार है कलाम से .... हालात से सजग रहने की ज़रूरत है आज ...
प्रश्नों की इक कतार मेरे सामने खड़ी,
मुझसे ही पूछती है नया प्रश्न क्या चुनूँ।
दोनों रचनायें प्रश्न तो खड़े कर रही हैं मगर मौन उत्तर भी इन्हीं में छुपा है।
सार्वभौमिकरण की बात नहीं उठी थी तब भी प्रतिभा पलायन और स्वैच्छिक प्रवास तो था ही।
अगर हम देश में उपयुक्त वातावरण नहीं दे सकते तो प्रतिभा पलायन और स्वैच्छिक प्रवास पर आपत्ति का उचित कारण शेष नहीं रह जाता है।
जब सवाल संवेदनशील हों तो और भी मुश्किल हो जाते हैं उनके जवाब ... जिस तरह से आदरणीया उषा जी ने अपने दोनों ही रचनाओं में प्रश्न खड़े किये हैं वो अपने आप में सारगर्भित हिं ... दोनों ही रचनाएँ पढ़ कर मैं सकते में आगया ... क्युनके सच तो यही है ...
एक नन्ही सी चिंगारी तिड़कने का ख़ामोशी से इंतज़ार कर रही है इसकी बवासी का पता चलता है ...
ऐसी रचनाएँ पढ़ने को मिलती है गुरु वर भाग्य ही समझता हूँ ...
अर्श
bahut achchhi kavitaen hai apna sandesh dene me samarth hein.vakei havaa goongi ho gaee hai. badhai
हम फिर
बटेंगे
और बिकेंगे
उन्हीं के
बाजारों में
अपनी खुदगर्जी
और मूर्खताओं के
प्रमाण बन .
वे फिर
खरीद ले जायेंगे
हमारे उभरते नौजवानों
और बुद्धिजीवियों को
...................................
अंगीठी में जलते हुए
लाल अंगारों से पूछती हूँ
कहीं मैं भी तो
जलता हुआ कोयला नहीं
जिसकी राख में
एक नन्ही सी
चिंगारी
तिड़कने का खामोशी से
इंतज़ार
कर रही है....waah
RACHNAA VAH JO DIMAAG KO HEE NAHIN
DIL KO BHEE MATHE.USHA RAJE
SAKSENAA KEE DONON KAVITAYEN KUCHH
SOCHNE KE LIYE VIVASH KARTEE HAIN.
SEEDHE-SAADE SHABD AUR VICHAAROTTEJAK BHAAV.BAHUT KHOOB.
सारगर्भित, विचारप्रधान सामयिक रचनाएँ.धन्यवाद।
उषाजी! दोनों कविता बहुत सुंदर!
दिल को छू खामोश कर गई..
पहली कविता में व्यक्त आशंकाओं से हम सभी परिचित हैं, फिर भी इस कविता ने मस्तिष्क को झकझोर दिया है। हम वाकई अपने-आप को विनाश के कगार पर खड़ा करते जा रहे हैं।
दूसरी कविता 'सन्नाटा'--मन के अन्दर उग आये परदेस में
कोई झिझकते हुए भी
सांकल नहीं खटखटाता
बहुत गहराई में जाकर प्रवासी-मन की व्यथा को व्यक्त करती है। इन कविताओं को उपलब्ध कराने के लिए आपको धन्यवाद।
dono rachnayen..vichar bodh ko jagrut karti huyee...
एक नन्ही सी
चिंगारी
तिड़कने का खामोशी से
इंतज़ार
कर रही है
पहली रचना में जहाँ प्रतिभा के पश्चिमी देशों की ओर पलायन को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से उधृत किया गया है वहीँ दूसरी रचना में मन के द्वन्द ,छटपटाहट को प्रभावशाली अभिव्यक्ति दी गयी है...
दोनों ही रचनाएँ अतिसुन्दर प्रभावशाली हैं...
Jaago Jaago
Ye zamaane ki maar hai
Lut raha apna bajaar hai
Usha ji,
Thanks for the reminder.
Beautifully expressed
Pushpa Bhargava
बहुत ही सारगर्भित रचनाएँ हैं दोनों ऊषा जी ! एक सच जिससे रोज़ ही रूबरू होते हैं हम
उषा जी कि शब्दावली से ह्रदय कि पीड़ा रिस रिस कर अपनी बेकसी कि दास्ताँ कह रही है. बहुत ही मार्मिक व् मन को छूने वाली रचनाओं के लिए धनवाद
हम फिर
बटेंगे
और बिकेंगे
उन्हीं के
बाजारों में
अपनी खुदगर्जी
और मूर्खताओं के
प्रमाण बन .
यू. के. के कलमकारों कि अभिव्यक्ति अपने आप में एक पहचान लिए हुए हैं.
श्रद्धेय महावीर जी, प्रणाम
दोनों रचनाएं दिल पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाली हैं.
अपने सपनों को पूरा करने के लिये प्रतिभाएं पलायन कर जाती हैं, तो इसके लिये कहीं न कहीं यहां उनकी उपेक्षा की स्थिति भी तो दोषी होती है.
कविता में त्रासदी है. वेदना है. क्या अपने देश में हमारी यही नियति है.
dono kavitaaye bahut sundar ban padhi hai ,.... aaj ke daur ki sahi vedna ko darshaati hai .. meri badhai kabool kare...
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