Friday, 2 April 2010

यू.के. से डॉ. इंदिरा आनंद की दो कवितायें

संक्षिप्त परिचय:
डॉ. इंदिरा आनंद

शिक्षा : डॉ. इंदिरा आनंद १९६४ में अर्थशास्त्र में पी.एच.डी. करने के लिए भारत से बाहर गईं और तब से उनका निवास भारत से बाहर ही रहा. १९६७ से उन्होंने ब्रिटेन में ही अपना घर बसा लिया. लन्दन से आयुर्वेद में ऑनर्स डिग्री और भारत के प्रतिष्ठित अस्पतालों आयुर्वेद चिकित्सा सम्बंधित ट्रेनिंग ली. १९९५में 'बिहार योग भारती' से योग-शिक्षक की योग्यता प्राप्त की.
सम्प्रति :एक समय था कि इन्वेस्टमेंट मैनेजमैंट और स्टॉक ब्रोकिंग जैसे व्यवसाय केवल पुरुषों का क्षेत्र माना जाता था. लन्दन कि स्टॉक एक्सचेंज में व्यवसायिक सामर्थ्य से कदम रखने वाली पहली महिला थीं. इसके साथ साथ योग-शिक्षण कार्य भी कर रही हैं जो पूरे जोर शोर से चल रहा
समाज कल्याण सेवा : प्रवासी भारतीय माता-पिता के बच्चों को हिन्दी सिखाने उत्तरदायित्व निभाती रही हैं. डॉ. इंदिरा जी ने 'सहारा मोन्ज सपोर्ट' परोपकारी संस्था की स्थापना की जिसका उद्देश्य उन भारतीय परोपकारी संस्थाओं को आर्थिक वनैतिक सहयोग देना है जो विभिन्न प्रकार से अभावग्रस्त बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने में सक्रिय हैं.
कृतियाँ :हिंदी में कविता संग्रह "अंतर्मन" और अंग्रेज़ी भाषा में लिखी "Living with my other world - a collection of dreams Visions, Premonitions and Telepathic Experiences.

'विश्वास'
डॉ. इंदिरा आनंद

जिनको जिनको विश्वास अडिग निज पर, वरदान नहीं माँगा करते.
कब जाना शलभ बचारे ने, जलना उसकी नादानी है.
शबनम का कतरा क्या जाने, वह मोती है या पानी है.
कंटक में कलियाँ पली, चटख कर फूल बनी, अलि मंडराया
वे क्या जाने अलि तब तक है, जब तक यह खिली जवानी है.

जो देने में ही सुख पाते, प्रतिदान नहीं माँगा करते.
जिनको विश्वास अडिग निज पर, वरदान नहीं माँगा करते.

जिन पर सागर को गर्व, वही लहरें अपहृत हो जाती हैं
बन मेघ श्याम अम्बर के नीले आँगन में छ जाती है.
सागर का प्रेम अगाध विकल हो, आवाहन करता जाता
ये सजल घटाएं सावन बन, धरती चू-चू जाती है.

जिनको वसुधा से प्रेम, स्वर्ग का दान नहीं माँगा करते.
जिनको विश्वास अडिग निज पर, वरदान नहीं माँगा करते.

सूरज की किरणें प्रखर सही, गति देती जीवन देती हैं.
तिमिरावृत पथ को ज्योतिदान, फूलों को यौवन देती हैं.
पर हुई प्रशंसित सदा चाँद की अलस चांदनी स्वप्नमयी
इन सूर्य रश्मियों को सदैव, शशि किरणें लांछन देती हैं.

हे कर्म क्षेत्र से नेह जिन्हें, सम्मान नहीं माँगा करते.
जिनको विशवास अडिग निज पर, वरदान नहीं माँगा करते.
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'आयु'
डॉ. इंदिरा आनंद

आयु इक छिदले घाट मानित
बूंद बूंद गिर जाती घटती
जो जाने इस क्षण की कीमत
ज्ञानी करे उसे जग निश्चित.

कर्मों का विष अथवा अमृत
मिश्रित करते निश दिन सब जन
टिप टिप बूंद बूंद कर सीचन
भावी काँटों का जंगल या कुसुमित उपवन.

जीवन जितना कुटिल उतनी उलझन
जितना पावन उतने श्रावन
चित्रगुप्त बैठा घट अन्दर
करता है निष्पक्ष विवेचन
.
उमड़ उमड़ नित नवल नवोली
घोलें मनोवृत्तियां कुसम्भ रंगोली
श्वेत वरण हंसो की टोली
क्योंकर स्वागित बक रंगरोली.

कर ले क्षण क्षण का आयोजन
बूंद बूंद घट का रीतापन
यह श्रावन पतझड़ का मिश्रण
उस पल अवगत इस पल गोपन.

आयु इक छिदले घट मानित
बूंद बूंद गिर जाती घटती
जो जाने इस क्षण की कीमत
ज्ञानी करे उसे जग निश्चित.
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सूचना:
The Nehru Centre in association with
Asian Community Arts and Katha UK
cordially invites you to
Down Memory Lane
Sachin Dev Burman with Tejendra Sharma
6.30 pm, Friday 9 April 2010
The Nehru Centre,8 South Audley Street, London W1K 1HF
जानकारी के लिए कथा यू.के. के
जनरल सेक्रेट्री तेजेंद्र शर्मा से संपर्क कीजिए:
मोबाईल : 07868 738 403

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14 comments:

इस्मत ज़ैदी said...

जिनको विश्वास अडिग निज पर, वरदान नहीं माँगा करते.
कब जाना शलभ बचारे ने, जलना उसकी नादानी है.
शबनम का कतरा क्या जाने, वह मोती है या पानी है.
कंटक में कलियाँ पली, चटख कर फूल बनी, अलि मंडराया
वे क्या जाने अलि अब तक है, जब तक यह खिली जवानी है.
जो देने में ही सुख पाते, प्रतिदान नहीं माँगा करते.

बहुत बढ़िया रचना ,अत्यंत उप्युक्त शब्दों का प्रयोग ,बहुत सुंदर

Urmi said...

बहुत बढ़िया रचना! उम्दा प्रस्तुती!

ओम पुरोहित'कागद' said...

आदरणीय महावीर जी ,
इन्दिरा आनंद की कविताएं अच्छी लगीँ।भाषा व बुनघट का पक्ष थोड़ा कमजोर है ।यह शायद यू.के.के लम्बे प्रवास की वज़ह से भी है।आप पराये देश मेँ हिन्दी का ध्वज थामे हैँ इस हेतु आपको नमन!
omkagad.blogspot.com

कडुवासच said...

....बेहद प्रभावशाली रचनाएं!!!

सहज साहित्य said...

जो देने में ही सुख पाते, प्रतिदान नहीं माँगा करते.-बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति है। और इन पंक्तियों में जीवन का सच अनुस्यूत है।

तिलक राज कपूर said...

'अलि अब तक है' में टंकण त्रुटि हो गयी लगती है यह 'अलि तब तक है' रहा होगा। एक बार फिर ऐसी रचनायें पढ़ने को मिलीं जिनसे उच्‍च हिन्‍दी के पाठ याद आ गये।

"अर्श" said...

श्रधेय महावीर जी को सादर प्रणाम,
डा. इंदिरा जी की दोनों ही कवितायेँ पूर्ण हैं... और इन दोनों कविताओं केबारे में कुछ भी कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं.... पहली कविता विश्वास ... पढ़ते वख्त ऐसी जानपड़ती है जैसे बचपन की वो कविता वीर तुम बढे चलो धीर तुम बढे चलो .... याद आगई ...
बेहतरीन कविता आप पढ़ने को मिली ....
"आयु " कविता में भाव ऐसे भरे हैं के क्या कहने ... समय की विशिष्टता पर गौर करने वाली बात है
अपनी कविताओं में शुद्ध रूप से जिस तरह से हिंदी के शब्दों का इस्तेमाल किया है इन्होने वो अपने आप में सामर्थ्य की बात है ...
इंदिरा जी को बधाई इन दोनों की कविताओं के लिए ....


आपका
अर्श

महावीर said...

तिलक राज जी, टंकण में जो त्रुटि हो गई थी, ठीक कर दी गई है. इसकी ओर
ध्यान दिलाने के लिए बहुत धन्यवाद.
महावीर शर्मा

Kavi Kulwant said...

Dr Indira Anand ko padhana behad sukhad raha... bahut khoob..

ashok andrey said...

dono kavitaen padin har bhav ko bade sundar dhang se shabdo me piro kar prastut kiya hai inn behtareen kavitaon ke liye badhai deta hoon DR INDIRA JEE KO.

Pawan Kumar said...

इंदिरा जी की दोनों कविताओं ने मन जीत लिया.......उनसे परिचय करने का शुक्रिया......अच्छी प्रस्तुति.....!

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

डॉ. इंदिरा आनंद की कवितायें प्रभावशाली हैं ।
आदरणीय महावीरजी की दिव्य दृष्टि को प्रणाम !

http://shabdswarrang.blogspot.com/

कृपया ,शस्वरं पर पधारें,और टिप्पणी दें !

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साभार : राजेन्द्र स्वर्णकार

परमजीत सिहँ बाली said...

सुन्दर रचनाएं हैं बधाई।

रंजना said...

जो देने में ही सुख पाते, प्रतिदान नहीं माँगा करते.
जिनको विश्वास अडिग निज पर, वरदान नहीं माँगा करते.

कितनी सुन्दर बात कही...वाह...मन उल्लासित हो गया..अतिसुन्दर और प्रवाहमयी यह कविता मंत्रमुग्ध कर लेती है...


आयु इक छिदले घट मानित
बूंद बूंद गिर जाती घटती
जो जाने इस क्षण की कीमत
ज्ञानी करे उसे जग निश्चित.

इस कविता का गंभीर चिंतन मन मस्तिष्क को सात्विक खुराक प्रदान करता है...

दोनों ही रचनाओं ने मन मोह लिया...