संक्षिप्त परिचय:
मोहन राणा
मोहन राणा का जन्म 1964 में दिल्ली में हुआ। वे दिल्ली विश्वविद्यालय से मानविकी में स्नातक हैं और आजकल ब्रिटेन के बाथ शहर के निवासी हैं।
उनके 6 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। जगह(1994),जैसे जनम कोई दरवाजा (1997), सुबह की डाक (2002), इस छोर पर (2003), पत्थर हो जाएगी नदी (2007),धूप के अँधेरे में (2008)। एक द्विभाषी संग्रह "विद आइज़ क्लोज़्ड" का प्रकाशन 2008 में हुआ है। कई संपादित संग्रहों में उनकी कविताएँ संकलित हैं. उनके कविता संग्रह 'धूप के अँधेरे में' को वर्ष 2009 में पद्मानंद साहित्य सम्मान से अलंकृत किया गया है।
कवि-आलोचक नंदकिशोर आचार्य के अनुसार - हिंदी कविता की नई पीढ़ी में मोहन राणा की कविता अपने उल्लेखनीय वैशिष्टय के कारण अलग से पहचानी जाती रही है, क्योंकि उसे किसी खाते में खतियाना संभव नहीं लगता। यह कविता यदि किसी विचारात्मक खाँचे में नहीं अँटती तो इसका यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि मोहन राणा की कविता विचार से परहेज करती है – बल्कि वह यह जानती है कि कविता में विचार करने और कविता के विचार करने में क्या फर्क है। मोहन राणा के लिए काव्य रचना की प्रक्रिया अपने में एक स्वायत्त विचार प्रक्रिया भी है।
मोहन राणा
तुम एक खामोश पहचान
जैसे भटकते बादलों में अनुपस्थित बारिश,
तुम अनुपस्थित हो जीवन के हर रिक्त स्थान में
समय के अंतराल में
इन आतंकित गलियों में,
मैं देखता नहीं किसी खिड़की की ओर
रूकता नहीं किसी दरवाजे के सामने
देखता नहीं घड़ी को
सुनता नहीं किसी पुकार को,
बदलती हुई सीमाओँ के भूगोल में
मेरा भय ही मेरे साथ है
मोहन राणा
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मोहन राणा
पर गुलाम हो गए चमकते बल्बों की चौंधियाहट से
कि नहीं दिखता कुछ भी उस चमकते अँधेरे में,
गढ़ा एक नया अँधेरा जिसकी रोशनी में मिटा दिया दिन को
खिड़की पे खींच कर पर्दा
तुम्हारी निराशा को अपनी कोशिश में
ठीक करते करते मैं भूल भी गया अपनी गलतियों को
अगर तुम्हें मिले वह आशा का चकमक पत्थर इस घुप्प में टटोलते,
बंद कर देना बत्ती कमरे से बाहर जाते हुए
देखना चाहता हूँ अँधेरे को तारों की रोशनी में
बंद आँखों के भीतर.
काले रंग को पहचानना असंभव होता है
सब ओर जब अंधकार हो
पर अगर देख सकते हैं हम
और कहते उसे स्याह
कैसा है सोचकर
तो कोई स्रोत तो होगा ही उसे देखने के लिए
वे आँख नहीं
वह मन नहीं
फिर क्या
जो कर दे अपनी पुष्टि
कैसे करूँ प्रमाणित कि सहमति हो जाय हमारे बीच
अपने अपने अंधेरे पर
भाषा ने परिभाषित कर
सीमित कर दिया अनुभूति को
गर्भ से बाहर
हम अंधेरा देख सकते हैं
या रोशनी की जरूरत भ्रम है!
या बस जन्मजात आदत है
कुछ देखने के लिए कि
कुछ लिख दूँ अंधेरे में
स्याही से
जो पढ़ा जा सके रोशनी की दुनिया में
मोहन राणा
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डाउन मेमोरी लेन'
16 comments:
दोनों ही रचनाएँ अद्भुत. आनन्द आ गया.
मोहन राणा जी को बधाई.
mujhko yah rachna ruchee.
भय, िजसका अस्तित्व ही नहीं, मनुष्य का वर्तमान खा लेता है और शायद ही कोई हो जो इससे ग्रसित नहीं।
शायद पूर्ण अंधकार की स्थिति ही जगमगाती कविताओं के मूल में होती है, रोश्नी में तो खो जाती है रोशनाई, एक कवि की कविताई और आ जाते हैं शब्दों का रूप लेकर कई भ्रम।
दोनों कवितायें अहसासों और सच को ख़ूबसूरती से पिरोये हुए...
DONO KAVITAAON KAA BHAAV PAKSH BADAA SAJEEV,MAARMIK AUR MAJBOOT
HAI.MEREE BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA.
dono ki dono rachnayen ..achhi hain... achha laga ap ko padh kar..
अलग अहसास की रचनाएं.
प्रवासी कवियों में मोहन राणा एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएं विश्व स्तर की कविताओं का मुक़ाबला कर सकती हैं। उन्होंने माडर्न कविता के मुहावरे को समझा है और अपनी कविताओं में पिरोया है। उनकी कविताओं में जो कहा गया है उससे बहुत कुछ है जो पाठक को स्वयं एक्सप्लोर करने को प्रेरित करता है। इस महत्वपूर्ण कवि की कविताओं का आपके ब्लॉग पर आना एक सुखद घटना है। मोहनजी और आपको बहुत बहुत बधाई।
तेजेन्द्र शर्मा
महासचिव - कथा यू.के.
Mohan rana ji ki kavitayen adhbhut hai .... anupasthith hai jaise barish bhatakte baadlon se ....
kuch likh dun andhere mein syaahi se jo padha jaa sake ........roshni mein
dhanyvaad itni sunder rachnaaon ko padhwaane ke liye
सचमुच राणा जी आपकी संवेदना काबिले-तारीफ है। अच्छा मनुष्य संवेदनशील होता है। और मेरा यह मानना रहा है कि एक अच्छी रचना का जन्म कोई मनुष्य ही कर सकता है। आपको इस बेहतर रचना के लिए बधाई।
mohan rana jee ki dono kavitaen alag bhavon me rachi gaeen hain jo mun ko chhoo jaati hain oonki pehli kavita ki panktee-
panktiyon ke beech anupasthit ho
tum ek khamosh pehchaan.
bahut sundar inn rachna ke liye oonhen badhai deta hoon
बहुत गहरे भाव हैं नज़्म के ....पहली पंक्ति में इक ' की ' छूट गयी है शायद .....
मिटाने की की कोशिश....
अगर तुम्हें मिले वह आशा का चकमक पत्थर इस घुप्प में टटोलते,
बंद कर देना बत्ती कमरे से बाहर जाते हुए
देखना चाहता हूँ अँधेरे को तारों की रोशनी में
बंद आँखों के भीतर.
वाह अद्भुत ......मोहन रना जी ....!!
बहुत बढ़िया लिखते हैं मोहन जी ......
महावीर जी शुक्रिया इन्हें पढवाने के लिए ......!!
श्रद्धेय महावीर जी सादर प्रणाम
आपको जन्मदिन की हार्दिक बधाई
ईश्वर से आपकी दीर्ध आयु व उत्तम स्वास्थ की कामना है
आपका स्नेह हमेशा मिला है... सदैव हमें मिलता रहे और आपका आशीर्वाद हम पर बना रहे
आपसे निवेदन है
- आपका वीनस
बहुत ही सुन्दर और शानदार रचना! उम्दा प्रस्तुती!
Gahre bhaav liye hai Raana ji ki najmen ... adbhud hai inki lekhni ...
भय साथ तो रहे
पर निर्भय करते हुए
और
लिखा हुआ
अंधेरे में तो छोडि़ए
उजाले में भी नहीं
पढ़ते हैं लोग
ऐसा है सबको रोग।
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