संक्षिप्त परिचय:
डॉ. वंदना मुकेश,बर्मिंघम, यू.के.
जन्म :भोपाल 12 सितंबर1969
शिक्षा : विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से स्नातक, पुणे विद्यापीठ से अंग्रेज़ी व हिंदी में प्रथम श्रेणी से स्नातकोत्तर एवं हिंदी में पी.एचडी की उपाधि। इंग्लैंड से क्वालिफ़ाईड टीचर स्टेटस।
भाषा-ज्ञान : हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, उर्दू एवं पंजाबी
लेखन एवं प्रकाशन: छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत।1987 में साप्ताहिक हिंदुस्तान में पहली कविता 'खामोश ज़िंदगी' प्रकाशन से अब तक विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओंऔर साहित्यिक पुस्तकों में विविध विषयों पर कविताएँ, संस्मरण, समीक्षाएँ, लेख, एवं शोध-पत्र प्रकाशित।
'नौंवे दशक का हिंदी निबंध साहित्य एक विवेचन'- 2002 में प्रकाशित शोध प्रबंध.
प्रसारण: आकाशवाणी पुणे से काव्य-पाठ एवं वार्ताएँ प्रसारित.
विशिष्ट उप्लब्धियाँ :छात्र जीवन से ही अकादमिक स्पर्धाओं में अनेक पुरस्कार, भारत एवं इंग्लैंड में अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में प्रपत्र वाचन, सहभाग और सम्मान। इंटीग्रेटेड काउंसिल फ़ॉर सोश्यो-इकनॉमिक प्रोग्रेस दिल्ली द्वारा 'महिला राष्ट्रीय ज्योति पुरस्कार' 2002
1997 से भारत एवं ब्रिटेन में विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संयोजन-संचालन। 2005 में गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था, बर्मिंघम द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय बहुभाषीय सम्मेलन की संयोजक सचिव ।
22वें अंतर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन में प्रपत्र वाचन। गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था की सदस्य। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से संबंद्ध।
संप्रति : इंग्लैंड में अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन.
संपर्क: vandanamsharma@yahoo.co.uk
वर्षों नहाए
आज वे ग्लेशियर बन गए हैं
कैसी ग्लोबल वार्मिंग है यह
कि कलेजे पत्थर बन गए हैं
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दिल छोटा-सा
बुन दिया तो
सैकड़ों की पहरन
वरना रेशा-रेशा
बिखर जाएगा
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न छू पाती ज़मीं उसको
परस्पर साथ-साथ चलते
इस पीड़ा को अनुभवते
अपने-अपने रंगों से
रंगहीन होती दुनिया में
लाल हरे पीले रंग रंगते।
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सपाट चेहरे से
नज़र हटी तो देखा-
अस्पताल के चौकोर पलंग की
चौकोर खिड़की से दिखती
भूरी काली सलेटी
गगनचुंबी चौकोर इमारतों के बीच
बहुत दूर ऊँचाई पर दिखता
भूरे काले सलेटी
आसमान का चौकोर टुकड़ा।
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अकेले
मैं,
तुम
और
वह...
झेलते अपना-अपना वनवास.
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14 comments:
भीड़ में
अकेले
मैं,
तुम
और
वह...
झेलते अपना-अपना वनवास.
-वाह!! क्या बात कही है!!
सभी क्षणिकायें बेहतरीन!! बधाई.
nice
छोटी मगर सारगर्भित कविताएं। डा0 वंदना जी को बधाई !
सुभाष नीरव
www.gavaksh.blogspot.com
www.kathapunjabi.blogspot.com
www.srijanyatra.blogspot.com
...प्रसंशनीय रचनाएं !!!
कैसी ग्लोबल वार्मिंग है यह
कि कलेजे पत्थर बन गए हैं।
ये तो कलेजे-कलेजे की प्रकृति है:
कुछ स्पंदनहीन
कुछ क्रियाहीन
कुछ कर्महीन
कुछ दिशाहीन
कुछ लज्जाहीन
वगैरह वगैरह
और कुछ सिर्फ हीन
यहॉं कहॉं रुकता है सफ़र
कुछ हीन नहीं शील
कुछ इतने गहरे जैसे झील
आखिर कलेजा है-इंसान का।
दिल, अहं और अस्पताल भी प्रभावशाली हैं।
क्षणिकाएँ अच्छी लगीं.
SABHEE KSHANIKAAYEN EK SE BADHKAR
EK HAIN.SASHAKT RACHNAAON KE LIYE
VANDANA JEE KO BADHAAEE AUR SHUBH
KAMNA
प्रभावशाली अंदाज़...बधाई
Dr Vandana jee ki chhot- chhoti si kavitayen bahut sundar ban padi hain unme se vanvaas bahut gahre prabhav chhot jati hai badhi.
behtreen...............
यूँ तो सभी क्षणिकाएं लाजवाब हैं..पर अंतिम क्षणिका बेजोड़ लगी...
बहुत ही सुन्दर लेखन....वाह !!!
स्नेह के जिस महासागर में
वर्षों नहाए
आज वे ग्लेशियर बन गए हैं
कैसी ग्लोबल वार्मिंग है यह
कि कलेजे पत्थर बन गए हैं,बधाई
सुंदर- सशक्त क्षणिकाएं!!
पत्थर बन कर भी
नेह के असर से
रपटे नहीं हैं
डटे वही हैं।
अस्पताल क्षणिका के लिए :
जब उस आसमान के
हिस्से से होकर
एक वायुयान है गुजरता
तो न जाने भीतर तक
मरीज के क्या है सिहरता।
वनवास क्षणिका के लिए :
सब रह रहे हैं
अपने अपने वन में
खुद को एवन समझते हुए।
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