'धरती के गान लिखो'
महावीर शर्मा
लिख चुके प्यार के गीत बहुत कवि अब धरती के गान लिखो।
लिख चुके मनुज की हार बहुत अब तुम उस का अभियान लिखो ।।
तू तो सृष्टा है रे पगले कीचड़ में कमल उगाता है,
भूखी नंगी भावना मनुज की भाषा में भर जाता है ।
तेरी हुंकारों से टूटे शत् शत् गगनांचल के तारे,
छिः तुम्हें दासता भाई है चांदी के जूते से हारे।
छोड़ो रम्भा का नृत्य सखे, अब शंकर का विषपान लिखो।।
उभरे वक्षस्थल मदिर नयन, लिख चुके पगों की मधुर चाल,
कदली जांघें चुभते कटाक्ष, अधरों की आभा लाल लाल।
अब धंसी आँख उभरी हड्डी, गा दो शिशु की भूखी वाणी ,
माता के सूखे वक्ष, नग्न भगिनी की काया कल्याणी ।
बस बहुत पायलें झनक चुकीं, साथी भैरव आह्वान लिखो।।
मत भूल तेरी इस वाणी में, भावी की घिरती आशा है,
जलधर, झर झर बरसा अमृत युग युग से मानव प्यासा है।
कर दे इंगित भर दे साहस, हिल उठे रुद्र का सिहांसन ,
भेद-भाव हो नष्ट-भ्रष्ट, हो सम्यक समता का शासन।
लिख चुके जाति-हित व्यक्ति स्वार्थ, कवि आज निधन का मान लिखो।।
महावीर शर्मा
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कविता-
प्रेम डगरिया
महावीर शर्मा
प्रेम डगरिया ही ऐसी है जहां न लुटने का ग़म होगा
नयन सजल ढल जाएँ लेकिन अश्रु-कोष नहीं कम होगा
मदमाती पलकों की छाया, मिल जाए यदि तनिक पथिक को,
तिमिर, शूल से भरा मार्ग भी आलोकित आनन्द-सम होगा
डगर प्रेम की आस प्रणय की उद्वेलित हों भाव हृदय के,
अंतर ज्योति की लौ में जल कर नष्ट निराशा का तम होगा
जात-पात की बात चली तो प्रेम के बंधन टूट गए क्यों
जाति-भेद का उन्मूलन हो, प्रेम कभी न मद्धम होगा
अकथ कहानी सजल नयन में लिए सोचता पथिक राह में,
दूर क्षितिज के पार कहीं पर, एक अनोखा संगम होगा
महावीर शर्मा
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अगला अंक: १७ जनवरी २०१०
यू.के. के कवियों की कविताओं की श्रृंखला अगले अंक
(१७ जनवरी २०१०) से हम प्रारंभ कर रहे हैं.
इस श्रृंखला की पहली रचना प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. गौतम सचदेव की होगी: "पलायन"
37 comments:
आदरणीय शर्मा जी
बहुत सुन्दर कविताएं.
बस बहुत पायलें झनक चुकीं,
साथी भैरव आह्वान लिखो।।
यह संपूर्ण कविता एक अह्वान गान है. अद्भुत.
पढ़वाने के लिए आभार
रूपसिंह चन्देल
०९८१०८३०९५७
'बस बहुत पायलें………'
बेहतरीन,शानदार। अदम गोण्डवी का एक शेर याद आ गया-
जो ग़ज़ल महबूब के जलवों से वाकिफ़ हो चुकी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
प्रेरक गीत के लिये बधाई और आभार।
लिख चुके मनुज की हार बहुत अब तुम उस का अभियान लिखो ।।
हार, आलोचना, बुराईयों पर बहुत लिख चुके अब सफ़लताओं, अभियान व उतार-चढाव पर लिखने का वक्त है जीत-हार के बीच के उन पलों को अभिव्यक्त करने का समय है जो निश्चिततौर पर अमिट-अमर हो गये हैं .....ठीक इसी तरह रम्भा के न्रत्य के स्थान पर विष और विषपान के पलों व कस्मकश की स्थिति का व्याख्यान भी आवश्यक है जब विष को देखकर सब अचंभित हो गये उन पलों मे शंकर ने आगे आकर विषपान किया और सब के माथे पर पडी सिकन को दूर किया अब उन पलों का व्याख्यान आवश्यक है ...
छोड़ो रम्भा का नृत्य सखे, अब शंकर का विषपान लिखो।।
...बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति, दोनो ही रचनाएं दिल को छूने वाली हैं, बधाईंया !!!!!
मत भूल तेरी इस वाणी में, भावी की घिरती आशा है,
जलधर, झर झर बरसा अमृत युग युग से मानव प्यासा है।
rachna ki atma manav vriti ke darshan kara rahi hai
bahut sunder v sargarbhit rachanyein donon
aadarniy mahaveer ji ,
namaskar
aapki kavitayen bahut acchi hai , specially ,dusri kavita -prem dagariya ..ise padhte hue aisa laga ki ye mujeh ek spiritual paath par le jaa rahi hai .. amazing effect by the words..sir ,meri dil se badhayi sweekar karen..
aapka
vijay
'मत भूल तेरी इस वाणी में, भावी की घिरती आशा है' जिस कवि को इसका अहसास हो गया उसका कृतित्व अलग ही दिशा ले लेता है, स्पष्ट उदाहरण हैं ये दोनों कृतियॉं।
शायद दूसरी कविता की ही परिस्थितियॉं ही थीं जिनपर साहिर लुधयानवी साहब ने कहा था कि 'इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक'।
बधाई और आभार इन मोहक रचनाओं के लिये।
तिलक राज कपूर
महावीर शर्मा जी
आदाब
हैँ यह कविताऐँ हक़ीक़ी ज़िंदगी की तर्जुमान
दोनोँ रंगोँ से अयाँ है सोज़ो साज़-ए-ज़िंदगी
अहमद अली बर्क़ी आज़मी
आदरणीय महावीर जी ....... प्रणाम
दोनो रचनाएँ साहित्य की उत्कृष्ट कृति हैं .......... कर्म को प्रेरित करती, प्रेम की कविता में भी आशा और उमंग का अध्बुध संगम है .......... बहुत अच्छा लगा दोनो को पढ़ कर .........
श्रधेय महावीर जी सादर प्रणाम ,
दोनों कवितायेँ खुद में साहित्य हैं , जिस तरह से प्रेम और करतब्य को आपने साम्जे रखा है और शब्द जैसे इस्तेमाल किये हैं आपने वो बस आपके ही बस की बात है ... दोनों ही कवितावो कमे तो तारतम्यता है वो कमाल है सच कहूँ तो यही साहित्य है... जिस तरह से अपने इसकी उपासना की है हमारे सामने दिख रही है ... मैं तो बस शब्द धुंध रहा हूँ क्या लिखूं ...
फिर से आता हूँ आपकी बेहतर स्वस्थ्य के लिए हमेशा ही कमान कर तह हूँ
अर्श
AADARNIY MAHAVIR JEE KO PADHNA SADAA HEE SUKHAD LAGTAA HAI,BHALE
HEE UNKAA LEKH HO YAA BHALE HEE
UNKEE KAHANI YAA KAVITA.
UNKEE YE DONO KAVITAAYEN MUN
KO BHARPOOR CHHOOTEE HAIN,SUNDAR
AUJPOORN BHAVABHIVYAKTI KE KAARAN.
DOOSREE RACHNA MEIN KAVITA AUR
GAZAL KAA KYA SUNDAR SANGAM HAI--
AKATH KAHAANI SAJAL NAYAN MEIN
LIYE SOCHTA PATHIK RAAH MEIN
DOOR KHITIJ KE PAAR KAHIN PAR
EK ANOKHA SANGAM HOGA
aadarniya Mahavir jee aapki dono rachnayen jindgee kee nayi pribhashaa likhtee hain jinkaa prabhav bahut hee gehraa hai-
Madmaatee palkon kee chhaya,mil jaaye yadee tanik pathik ko
Timir,shool se bharaa marg bhee aalokit aanand-sam hogaa.
tathaa-
too to srishtaa hai re pagle keechad men kamal oogata hai,
bhookhee nangee bhavnaa manuj kee bhashaa men bhar jaata hai.
Bhhut sundar rachnaon ke liye badhai.
ashok andrey
लिख चुके मनुज की हार बहुत अब तुम उस का अभियान लिखो ।।
छोड़ो रम्भा का नृत्य सखे, अब शंकर का विषपान लिखो।।
बस बहुत पायलें झनक चुकीं, साथी भैरव आह्वान लिखो।।
लिख चुके जाति-हित व्यक्ति स्वार्थ, कवि आज निधन का मान लिखो।।
एक एक शब्द गहराई से प्रभावित करता है.प्रेरणा दायक और अंतर्मन को आंदोलित कर देने वाला!पढना सुखद हो गया है.
प्रणाम!एवं आभार!
Mahavir ji,
man ko chhooney wali kavitaon ke
liyay bahut dhanyavad. Bahut hee sunder panktiyan han aapki. Aasha hai aapki kalam se aisi hee sunder kavitaan nikalti rahein.
Pushpa Bhargava
उभरे वक्षस्थल मदिर नयन,
लिख चुके पगों की मधुर चाल,
कदली जांघें चुभते कटाक्ष,
अधरों की आभा लाल लाल।
अब धंसी आँख उभरी हड्डी,
गा दो शिशु की भूखी वाणी ,
माता के सूखे वक्ष,
नग्न भगिनी की काया कल्याणी ।
बस बहुत पायलें झनक चुकीं,
साथी भैरव आह्वान लिखो।।
लफ्ज़ .....
चाहे पढने में कोरे लगें ,,,,
बेलिबास लगें ,,,,,
लेकिन भावनाओं ने ज़मीर की बुलंदी का
परचम ओढ़ रक्खा है ...
एक-एक पंक्ती पढने वाले को
सच के बिलकुल क़रीब
ले जाने में सक्षम बन पडी है
आम इंसान के दर्द को अपने काव्य में पिरो सकना
बहुत कम रचनाकारों को नसीब होता है
स्व-भाव को छोड़ कर जग-पीड़ा को रचना
ऐसा परम kartavya आप ne nibhaaya है
इसके लिए
माँ सरस्वती जी आपको
और भी ढेरों ढेरों आशीर्वाद दें
यही कामना है
प्रणाम ...
अद्भुत, अति सुन्दर कवितायेँ | दोनों कवितायेँ अत्यधिक पसंद आयीं | मगर .. कुछ प्रश्न छोड़ गयीं |
अनुमति हो तो .. ?
अकथ कहानी सजल नयन में लिए सोचता पथिक राह में,
दूर क्षितिज के पार कहीं पर, एक अनोखा संगम होगा
अत्यंत सुन्दर अभिव्यक्ति !!
Pranaam
RC
RC ji
आपने टिपण्णी में कहा है:
"मगर .. कुछ प्रश्न छोड़ गयीं. अनुमति हो तो.....?
'अनुमति' शब्द की तो कोई बात ही नहीं है. रचना के
विषय में किसी भी प्रकार की आशंका हो या मस्तिष्क में कोई प्रश्न है, आपको पूछने का अधिकार है. आप अवश्य ही पूछिये. चाहे इसी साईट पर लिखकर पूछ सकती हैं, वर्ना मुझे ई मेल भी भेज सकती हैं.
महावीर शर्मा
mahavir.sharma5@googlemail.com
आदरणीय महावीर जी...दोनो ही बहुत सुंदर कवितायें हैं....इन पंक्तियों ने मन को छु लिया...
धन्यवाद
"छिः तुम्हें दासता भाई है चांदी के जूते से हारे।
छोड़ो रम्भा का नृत्य सखे, अब शंकर का विषपान लिखो।।"
महावीर जी की दोनों रचनाएँ प्रेरणात्मक हैं...
इतनी बढ़िया रचनाएँ लिखने और पढ़वाने के लिए आभारी हूँ ...
दादा भाई सबसे पहले तो आभार कि आपने मेरे अनुरोध का मान रख कर अपनी कविताएं पढ़वाई । बात केवल पहली ही कविता की करूंगा क्योंकि अभी तो दूसरी पढ़ ही नहीं पाया । क्यों क्योंकि पहली ने ही इतनी बार उलझाया कि दूसरी पर जाने का समय ही नहीं मिला है । उफ ऐसा लगता है कि समय के घटाटोप को पार करके कविता का स्वर्ण युग पुन: आ गया है । कविता का वो स्वर्ण युग जिसमें कविता का अर्थ केवल नायिका का वर्णन या राजा महाराजाओं का वर्णन नहीं होता था बल्कि पीडि़त और शोषितों की बात करना होता था । ये परंपरा कबीर से प्रारंभ होती है । और मेरे विचार में इस परंपरा को सबसे तीखा स्वर दिया दादा रामधारी सिंह दिनकर जी ने । आपकी ये कविता किसी महफिल मे जली शम्अ नहीं है औश्र न किसी मंदिर में जलता हुआ दीपक है । ये कविता तो घुप अरण्य में कवि के हाथों में जलती हुई मशाल है । मशाल जो हमेशा से ही विद्रोह का प्रतीक होती है । मशाल जो हमेशा संघर्ष की चुनौतियों से जूझने का संबल दिलाने उठी हुई होती है । कविता क्या है पूरा का पूरा अध्याय है । और सबसे अच्छी बात ये है कि पूरी कविता में आपने बहुत ही कुशलता से दोनों ही बातें दिखाई हैं कि एक तरफ ये है और दूसरी तरफ ये है । दादा भाई आपकी कविता को पढ़कर दादा दिनकर जी याद आ गये । दिनकर जी का काव्य अग्निधर्मा काव्य है । उनके काव्य में शीतलता नहीं है । फुहारें नहीं है । आपकी ये कविता भी अग्निधर्मा कविता है । कवि जिसकी क़लम की नोक पर परिवर्तन की धुरी टिकी होती है । वह कवि यदि नायिका के उरोज और स्तन का वर्णन करने में लगा रहे, नायिका की भृकुटियों और कटाक्षों से उत्पन्न होने वाले सुख का बखान करता रहे तो समाज को तो पंगु होना ही है । आपकी ये कविता उसे सचेत कर रही है जो दूसरों को सचेत करता है । कवि हर प्रकार के परिवर्तन का सूत्रधार होता है । किन्तु ये परिवर्तन किस प्रकार का हो ये भी तो तय किया जाना है । आपका पहला ही छंद कवि को उसकी शक्तियों का आभास कराता है । कीचड़ में कमल खिलाने की जो बात आपने कही है वो कमल और कुछ नही है बल्कि मानवता का कमल है । यदि कवि नायिका के नयन कमल खिलाने लगे तो मानवता हारने लगती है । आपने कवि को सृष्टा का दर्जा देकर बहुत ही बड़ी बात कही है । किन्तु ये बात केवल बात न होकर एक जिम्मेदारी भी है । जिम्मेदारी इस बात की कि सृष्टा अब सृजन किस प्रकार का करता है । दादा भाई मुझे कभी भी वो काव्य पसंद नहीं आया जिसे किसी विशेष को महान बनाने के लिये लिखा गया हो । फिर चाहे वो पृथवीराज रासो हो या शिवाजी पर लिखा गया काव्य हो । मेरे विचार में कवि को इन सबसे बचना चाहिये । कवि का कार्य तो होता है कि वो हर युग में दादा दिनकर की तरह लिखे फैशन वालों को एक नया फैशन है मिला, गाड़ी में बांधों तीन रंग वाला चिथड़ा । आपने भी अपनी कविता में वही लिखा है कवि के लिये कि छि: तुम्हें दासता भाई है चांदी के जूते से हारे । ये आप जैसा कवि ही कह सकता है कि हे सृष्टा तुम चांदी के जूते से हार चुके हो । दूसरा छंद वहीं पहुंचता है जहां आज के कवि भटक रहे हैं वहीं अर्थात नायिका के देह की देहावलियों के आस पास । ऐसा लगता है कि इनको कोई दूसरा ठौर मिला ही नहीं । आपने विलक्षण रूप से दो दो का मेल किया है । पहली दो पंक्तियां कलम की स्याही के नाली में बहने की गाथा कहती हैं और दूसरी दो पंक्तियां उसका प्रायश्चित बताती हैं । और अंत में वो ध्रुव पंक्तियां कि बस बहुत पायलें झनक चुकीं साथी भैरव आह्वान लिखो । तीसरा छंद दिनकर जी के सिंहासन खाली करो की याद दिलाता है । कर दे इंगित भर दे साहस हिल उठे रुद्र का सिंहासन । इसमें इंगित शब्द का प्रयोग बहुत ही कुशलता से किया गया है बाबा नागार्जुन ने गांधी पर अपनी कविता में भी ये प्रयोग बहुत कुशलता से किया है ।केवल एक इंगित ही तो विद्रोह को जन्म देता है । कवि जब उंगली उठाकर बताता है कि वहां है लक्ष्य जिसे तोड़ना है । तो समाज टिटककर टूट पड़ता है उस इंगित पर । और यही कवि जब इंगित कर देता है नायिका के यौवन उभारों की ओर तो समाज उस तरफ टूट पड़ता है । यही कवि जब राजा या व्यवस्था की विरदावलियां लिख देता है तो समाज उस राजा या व्यवस्था के चरणों में अभिवादन करने के लिये टूट पड़ता है । सम्यक समता के जिस शासन की बात आप कर रहे हैं वो कवि ही ला सकता है । कवि ही समाजवाद का सही हामी हो सकता है । किन्तु कवि को नायिका की अलकों के अवगुंठन से मुक्त कौन कराये, कवि को व्यवसथा के चांदी के जूतों की धूल से मुक्त कौन कराये । निचित रूप से ये भी कवि को ही करना होगा । और आपने अपनी इस कविता में ये किया है । आपकी लेखनी को दंडवत । यदि नये लिखने वाले कवियों में एक भी भाव को पकड़ पाया तो मैं समझूंगा कि चमत्कार का प्रारंभ हो चुका है । कविता को अपने स्वर में रिकार्ड कर रहा हूं ।
तिमिराई भटकी राहों को, मिल जाये जैसे सुप्रभात
मिल जाये अमॄत प्राणों को जिनको घेरे था सन्निपात
भ्रम के जालों को काट सके, मिल गई किरण इक आशा की
फिर मुरझा ठिठके कानन में, कोंपल महकी अभिलाषा की
आभार आपका, कविता को दे रहे नया आव्हान लिखो
सब शब्द कह रहे हैं मुझसे, दादा भाई का नाम लिखो.
सादर
राकेश
और आपकी दूसरी रचना के सन्दर्भ में यही कहूँगा
महावीर की शक्ति लेखनी जिसको हाथ बढ़ा कर छू ले
ढले गीतिकाम ें आकर जो, भाव सुनिश्चित अनुपम होगा
श्रद्धेय महावीर जी ,
आज
आप
मेरी रचना पर आए और सराहा....मेरा मान बढ़ गया.....आपकी रचना तक पहुँचाने का मार्ग भी मिला.. "धरती के गान लिखो...." कविता..बहुत ही मन को प्रसन्न करने वाली है....उर्जा प्रदान करती है....बहुत सुन्दर.
रचना के लिए आपको बधाई देना जैसे सूरज को दीपक दिखाना है
श्रद्देय महावीर जी, सादर प्रणाम
भाई पंकज सुबीर जी ने दूसरों के लिये कहने को कुछ बाक़ी नहीं छोड़ा है.
लिहाजा कोशिश करने की जुर्रत भी नहीं करूंगा
हां इतना ज़रूर अर्ज़ करना चाहता हूं कि आपकी अपनी रचनाएं,
एक क्षण मुझ जैसे नौसिखिये को अपने 'ज्ञान' की तंगदस्ती का अहसास करा देती हैं.
लेकिन.
दूसरे ही क्षण आपकी हर विधा पर मज़बूत पकड़
अपने आशीर्वाद का हाथ रखते हुए
बहुत कुछ सीखने की प्रेरणा भी दे जाती है..
अल्लाह आपको सेहतमंद रखे, और
आपका साया हमारे सिरों पर हमेशा कायम रखे-आमीन
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
क्या बात है दादा..... सुबह सार्थक हो गई आज तो.... सारा दिन इन्हीं गीतों के नशे में कटेगा..
आ. महावीर जी ,
सादर प्रणाम
आपकी कवितायेँ पढ़कर, ना जाने क्यूं , पूज्य पापा जी की याद आ गयी
वैसा ही ओज,
वैसा ही युगबोध और हर मनुष्य में छिपी संभावना के बीज को
आपकी सूर्य के उज्जवल प्रकाश की वाणी से प्राणदान मिला हो और नयन जल
से सींच कर अंकुरित किया
तब उर्वरा भूमि का कार्य
सार्थक हुआ समझो ..
आप पढवाईये न और भी कवितायें ....
विनत,
एक पुत्री के नमन स्वीकारें
- लावण्या
"धरती के गान लिखो....." सचमुच यह प्राणों में हुंकार भरता आह्वान है...भाव और अभिव्यक्ति दोनों ही अप्रतिम है इस रचना में.....मन को ऐसे बाँध लेती है की बहुत प्रयास करना पड़ा उस रस से बाहर निकल पुनः दूसरी रचना पढने को...
दोनों ही रचनाएँ अतिसुन्दर,मनमोहक मुग्धकारी हैं....
आह! फ्री-वर्स और अ-कविता के इस ज़ालिम दौर में आप खुश्बू दार मंद पवन के झोंके की तरह हैं, गुरुवर।
दोनों कविताओं के रस में डूबा अपनी भावनायें उकेरने जो टिप्पणी-बक्से में पहुंचा तो सुबीर जी के शब्दों ने कविता के इस आनंद को कई गुना कर दिया।
आदरणीय शर्मा जी दो दिन कम्पयूटर खराब रहा इस लिये आपकी रचनायें न पढ सकी। आपने जो कवितायें लिखी हैं उनके स्तर को देख कर मुझे संकोच हो रहा है कि मेरे पास वो शब्द नहीं है। बहुत बार सोचती हूँ मेरा कमेन्ट् तो बस एक खाना पूर्ति है । मेरे भाई यों आदर्णीय प्राण जी और सुबीर जी ने बहुत कुछ कह दिया है तो हाथी के पाँव मे सब का पाँव ! लाजवाब रचनायें हैं बधाई और शुभकामनायें
आदरणीय महावीर जी, प्रणाम।
आपकी रचनाएँ पढ़कर तो मंत्रमुग्ध हो गए।
बहुत सुन्दर भाव है और प्रस्तुति भी।
शुभकामनायें।
पहली बार आपके ब्लॉग पर कमेन्ट देने जैसी हिम्मत जुटाने का साहस कर रहा हूँ. इस से पहले अनेक बार इस ब्लॉग का भ्रमण मात्र कर के लौट जाता था. अफ़सोस सिर्फ इस बात का है कि मैं पहल नहीं कर सका और आप मुझ नाचीज़ के ब्लॉग तक आए, गजल पढ़ी और अपने कमेन्ट से नवाज़ा भी. मैं शर्मिंदा हूँ लेकिन इस बात की खुशी भी है कि मुझे किस महान हस्ती का स्नेह और आशीर्वाद हासिल है.
आपकी रचनाओं की बाबत मैं कुछ कहूं या मुंह खोलूँ, ऐसी मैं अपनी हैसियत या औकात नहीं समझता. आपने जो कुछ भी दोनों रचनाओं में पेश किया है, आपके इल्म, फहम, दानिश और त्ज्र्बात की अक्कासी करता है. चंद रोज़ बाद जो गजल मैं पोस्ट करने वाला हूँ, उसमें आपकी पहली रचना की झलक शायद मिले.
मैं सिर्फ और सिर्फ शुक्रगुजार हूँ, इस आशा के साथ कि यह स्नेह मुझे प्राप्त होता रहेगा.
लिख चुके प्यार के गीत बहुत कवि अब धरती के गान लिखो।
लिख चुके मनुज की हार बहुत अब तुम उस का अभियान लिखो ।।
--बिल्कुल...इस माध्यम से आपने कितनी बड़ी सीख दी है. नमन करता हूँ.
और दूसरी रचना आपकी लेखनी का कायल बना दे रही है...जो हम पहले से ही हैं. :)
बहुत बधाई दोनों उत्कृष्ट रचनाओं के लिए.
आदरणीय महावीर जी,
बहुत ही सुन्दर गीत हैं दोनों।
पहले गीत की स्थाई पंक्तियाँ ही पूरे गीत का प्राक्कथन हैं
दूसरी कविता की ये पंक्तियाँ विशेष अच्छी लगीं
अकथ कहानी सजल नयन में लिए सोचता पथिक राह में,
दूर क्षितिज के पार कहीं पर, एक अनोखा संगम होगा
सादर
sundar geet...
sundar geet...
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