"पलायन" का अंतिम भाग :
डॉ. गौतम सचदेव
डॉ. गौतम सचदेव
औरतें लुटती गईं या डूब कुओं में मरीं
बाप-भाई दें ज़हर घर छोड़कर जब हम चले
मुंह करें काला दरिन्दे और काटें छातियाँ
औरतें वे घेर कर घर छोड़कर जब हम चले
खाल ओढ़ी जानवर की आदमी शैतान थे
कुछ न थी बाकी कसर घर छोड़कर जब हम चले
नस्ल सब की एक थी खूंखार थे सब एक से
गिद्ध ,कुत्ते और नर घर छोड़कर जब हम चले
काटते गहने शवों से जीवितों को नोचते
वे बने पागल मकर घर छोड़कर जब हम चले
बन गए कब्रें कुएँ मरघट बनीं नदियाँ सभी
खून के नाले नहर घर छोड़कर जब हम चले
तैरते लंगड़े व लूले खून के तालाब में
झेल हमलों की लहर घर छोड़कर जब हम चले
लोग रो-धो राह में शव छोड़ते या फूँकते
देखकर ठिठके शजर घर छोड़कर जब हम चले
पेड़ अंगों के शवों के थे वहां जंगल उगे
ज़ख्म थे हर मोड़ पर घर छोड़कर जब हम चले
मौत पहरे पर खड़ी थी मौत का ही राज था
मौत डुलवाती चँवर घर छोड़ कर जब हम चले
मर गई इंसानियत जब जीत मज़हब की हुई
थे पुजारी जानवर घर छोड़कर जब हम चले
नाम पर सब धर्म के कैंची व चाक़ू बन गये
खून तक देते कतर घर छोड़कर जब हम चले
राज बदले हैं मगर जनता नहीं बदली कभी
यह न सच आया नज़र घर छोड़कर जब हम चले
वह न मिट्टी ही फटी टुकड़े दिलों के हो गये
टूटते देखे जिगर घर छोड़कर जब हम चले
मुल्क की तकदीर की कुछ यूँ लकीरें खिंच गयी
आईं दीवारें उभर घर छोड़कर जब हम चले
ठीक आज़ादी करे क्या रोग था तक़्सीम का
कर गई उल्टा असर घर छोड़कर जब हम चले
दूर था भारत गगन में टिमटिमाता ज्यों कहीं
हम परिंदों के न पर घर छोड़कर जब हम चले
जान थी आधी यहाँ तो जिस्म था आधा वहां
कुछ इधर था कुछ उधर घर छोड़कर जब हम चले
चीखते, रोते इधर हम लोग हँसते थे उधर
सी लिए अपने अधर घर छोड़कर जब हम चले
खंदकें थी उस तरफ तो इस तरफ थी खाइयां
काल का बजता गजर घर छोड़कर जब हम चले
राजनीतिक आग में सब घोंसले बिरवे जले
राख थे सब गुलमुहर घर छोड़कर जब हम चले
जुर्म क्या था, किसलिए हमको जलावतनी मिली
फिर न जा सकते उधर घर छोड़कर जब हम चले
था ग़दर वह जब कि सबने जंग-ए- आज़ादी लड़ी
कौन-सा था यह ग़दर घर छोड़कर जब हम चले
खून के आँसू बहे तो लाल आज़ादी हुई
घुल गया सुख में ज़हर घर छोड़कर जब हम चले
देश छोटा हो गया पर हो गये नेता बड़े
सब गये वादे मुकर घर छोड़कर जब हम चले
देश में सबको सुरक्षित ला सके नेता न क्यों
क्यों हुए वे बे-हुनर घर छोड़कर जब हम चले
देश अपना भी हमें कहने लगा शरणार्थी
रह गये बनकर सिफ़र घर छोड़कर जब हम चले
डॉ. गौतम सचदेव
बाप-भाई दें ज़हर घर छोड़कर जब हम चले
मुंह करें काला दरिन्दे और काटें छातियाँ
औरतें वे घेर कर घर छोड़कर जब हम चले
खाल ओढ़ी जानवर की आदमी शैतान थे
कुछ न थी बाकी कसर घर छोड़कर जब हम चले
नस्ल सब की एक थी खूंखार थे सब एक से
गिद्ध ,कुत्ते और नर घर छोड़कर जब हम चले
काटते गहने शवों से जीवितों को नोचते
वे बने पागल मकर घर छोड़कर जब हम चले
बन गए कब्रें कुएँ मरघट बनीं नदियाँ सभी
खून के नाले नहर घर छोड़कर जब हम चले
तैरते लंगड़े व लूले खून के तालाब में
झेल हमलों की लहर घर छोड़कर जब हम चले
लोग रो-धो राह में शव छोड़ते या फूँकते
देखकर ठिठके शजर घर छोड़कर जब हम चले
पेड़ अंगों के शवों के थे वहां जंगल उगे
ज़ख्म थे हर मोड़ पर घर छोड़कर जब हम चले
मौत पहरे पर खड़ी थी मौत का ही राज था
मौत डुलवाती चँवर घर छोड़ कर जब हम चले
मर गई इंसानियत जब जीत मज़हब की हुई
थे पुजारी जानवर घर छोड़कर जब हम चले
नाम पर सब धर्म के कैंची व चाक़ू बन गये
खून तक देते कतर घर छोड़कर जब हम चले
राज बदले हैं मगर जनता नहीं बदली कभी
यह न सच आया नज़र घर छोड़कर जब हम चले
वह न मिट्टी ही फटी टुकड़े दिलों के हो गये
टूटते देखे जिगर घर छोड़कर जब हम चले
मुल्क की तकदीर की कुछ यूँ लकीरें खिंच गयी
आईं दीवारें उभर घर छोड़कर जब हम चले
ठीक आज़ादी करे क्या रोग था तक़्सीम का
कर गई उल्टा असर घर छोड़कर जब हम चले
दूर था भारत गगन में टिमटिमाता ज्यों कहीं
हम परिंदों के न पर घर छोड़कर जब हम चले
जान थी आधी यहाँ तो जिस्म था आधा वहां
कुछ इधर था कुछ उधर घर छोड़कर जब हम चले
चीखते, रोते इधर हम लोग हँसते थे उधर
सी लिए अपने अधर घर छोड़कर जब हम चले
खंदकें थी उस तरफ तो इस तरफ थी खाइयां
काल का बजता गजर घर छोड़कर जब हम चले
राजनीतिक आग में सब घोंसले बिरवे जले
राख थे सब गुलमुहर घर छोड़कर जब हम चले
जुर्म क्या था, किसलिए हमको जलावतनी मिली
फिर न जा सकते उधर घर छोड़कर जब हम चले
था ग़दर वह जब कि सबने जंग-ए- आज़ादी लड़ी
कौन-सा था यह ग़दर घर छोड़कर जब हम चले
खून के आँसू बहे तो लाल आज़ादी हुई
घुल गया सुख में ज़हर घर छोड़कर जब हम चले
देश छोटा हो गया पर हो गये नेता बड़े
सब गये वादे मुकर घर छोड़कर जब हम चले
देश में सबको सुरक्षित ला सके नेता न क्यों
क्यों हुए वे बे-हुनर घर छोड़कर जब हम चले
देश अपना भी हमें कहने लगा शरणार्थी
रह गये बनकर सिफ़र घर छोड़कर जब हम चले
डॉ. गौतम सचदेव
15 comments:
....अनमोल ... अजर-अमर रचना ...एक-एक शेर दिल को छू रहा है..... बहुत-बहुत बधाई !!!!!
दास्ताने-तकसीम...विलक्षण ग़ज़ल रचना
NIHSHABD KAR DIYA IS ADWITEEY RACHNA NE......
EK EK SHER SEEDHE DIL ME UTAR KA BHAVUK KAR GAYA...
AAPKI LEKHNI KO NAMAN.....
विभाजन की त्रासदी और तज्जनित मानसिक पीड़ा की सफ़ल अभि्व्यक्ति।
'पलायन' एक जीवंत कथानक है भारत-पाकिस्तान बँटवारे का जिसे न हिन्दू ने चाहा न मुसलमान ने, और जब मैं मुसलमान कह रहा हूँ तो उस मुसलमान की बात कर रहा हूँ जो इस्लाम को समझता हो।
जहॉं सम्पूर्ण रचना एक वीभत्स सत्य है वहीं इस रचना का अंत कि:
देश अपना भी हमें कहने लगा शरणार्थी
रह गये बनकर सिफर घर छोड़कर जब हम चले
एक ऐसा कटु सत्य जिसे मुझ जैसे लोगों ने भी सहा जो इस बँटवारे के बाद की पीढ़ी में जन्मे।
प्राथमिक कक्षा के एक छात्र के रूप में कई बार मुझे सुनना पड़ा 'अच्छा, तो शरणार्थी हो'। उस समय में इस विषय में नासमझ था फिर समझ का दौर भी कई बार ऐसी टिप्पणियॉं सुनने में गुजरा और फिर परिपक्वता का दौर आया जब मेरे लिये ऐसी टिप्पणियॉं एक बेमानी तमाशा भर रह गयीं और दिल ग़ालिबाना होकर कहने कहने लगा:
बाग़ीचा-ए-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज तमाशा मेरे आगे।
एक दौर था जो गुजर चुका है, कहीं यादें कहीं टीसें बाकी हैं, आज वही शरणार्थी अपने इस देश के विकास में हर तरह से भागीदार हैं। उनके बच्चे कर्णधार हैं आज के और कल के भारत के।
ourten luttee gaeen yaa kuon men mareen
baap-bhaaiden jahar ghar chhod kar jab hum chale tathaa-
desh apnaa bhee hamen kehne lagaa sharnarthee
reh gaye bankar siphar ghar chhodkar jab hum chale
ye panktiyaan dil our deemag ko jhakjhor deteen hain rongte khadee kar dene vaalee isthitiyaan paidaa kartee hai uss vakt aadmee kitnaa laachaar ho gayaa hogaa iski kalpanaa, hei bhagvaan ! shabd gayab hone lagte hain, iss rachnaa ko padvane ke liya mai aapka tathaa Dr Goutam jee ka aabhar vayakt kartaa hoon
ashok andrey
सचदेवा साहिब ने कमाल के शे'र कहे हैं 'पलायन' इसकी तस्वीर देख आँख के कोर भीग गए ... मगर आज की ग़ज़ल न जाने कितनी ही सच्चाईयां समेटे है... मतले को पढ़ते ही लगा और कुछ जरुर मिलने वाला है पूरी ग़ज़ल एक ही सांस में पढ़ गया ... बहुत कुछ इस्खने को मिला ... सलाम इनकी लेखनी को ....
अर्श
श्रद्देय महावीर जी, प्रणाम
जिस त्रासदी का वर्णन आंखें नम कर रहा है,
जिन्होंने इसे झेला है,
उन पर क्या गुज़री होगी,
ये सोचकर ही दिल कांप उठता है
ऐ खुदा, ऐसा कभी न हो, कहीं न हो
uttam rachna
देश छोटा हो गया पर हो गये नेता बड़े
सब गये वादे मुकर घर छोड़कर जब हम चले
bahut khub
abhar
डॉ. गौतम सचदेव जी की इस नायाब रचना की हर पंक्ति दिलको छूती हुई लगी. एक ऎसी रचना जिसे पढ़ते हुए ऐसा अहसास होता है जैसे सारे भाव और शब्द सशरीर सजीव होकर आँखों के सामने चल-चित्र की भांति घूम रहे हों.
'महावीर' टीम डॉ. गौतम सचदेव जी को ऎसी सुन्दर रचना के लिए हार्दिक धन्यवाद. साथ ही 'पलायन' के दोनों भागों में हम उन पाठकों का धन्यवाद देते हैं जिन्होंने टिपण्णी में अपने विचार दिए.
महावीर शर्मा
हर शेर उम्दा...लाजवाब.....वाह...एक से बढ़कर एक....
आप का ये प्रयास बहुत ही अच्छा है....आप इसे जारी रखियेगा....
हर शेर उम्दा...लाजवाब.....वाह...एक से बढ़कर एक....
आप का ये प्रयास बहुत ही अच्छा है....आप इसे जारी रखियेगा....
डा गौतम जी की ये रचना मैने शायद पहले भी कहीं पढी है । हर पलायन करने वाले की व्यथा को मार्मिक भाव दिये हैं हर शेर उमदा और सटीक है गौतम जी का और आपका आभार
ati sundar
nat mastak hun ...........yun laga jaise wo pal aankhon ke aage jivant ho uthe hon.
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