ग़ज़ल
सोहन 'राही', यू.के.
सोहन 'राही', यू.के.
माज़ी की गुफाओं में जो टूटे से पड़े हैं
वह लम्हे तो अब भी मिरी आँखों में जड़े हैं
मत देख मिरे प्यार को नफ़रत की नज़र से
माना की तिरे और तलबगार बड़े हैं
हर शाख़-ए-गुल-ए-तर पे गुमाँ तेरे बदन का
हर चोट उभर आई है जब फूल झड़े हैं
है अपनी हथेली पे नई सुब्ह का सूरज
गो काली रवायत के मक़तल में खड़े हैं
दो और दुआएं न हमें उम्र-ए-ख़िज़र की
माज़ी की दुआओं से परेशान बड़े हैं
'राही' न उठा मौत का ताबूत ज़रा देख
काँधे भी हैं कमज़ोर हवादिस भी कड़े हैं
वह लम्हे तो अब भी मिरी आँखों में जड़े हैं
मत देख मिरे प्यार को नफ़रत की नज़र से
माना की तिरे और तलबगार बड़े हैं
हर शाख़-ए-गुल-ए-तर पे गुमाँ तेरे बदन का
हर चोट उभर आई है जब फूल झड़े हैं
है अपनी हथेली पे नई सुब्ह का सूरज
गो काली रवायत के मक़तल में खड़े हैं
दो और दुआएं न हमें उम्र-ए-ख़िज़र की
माज़ी की दुआओं से परेशान बड़े हैं
'राही' न उठा मौत का ताबूत ज़रा देख
काँधे भी हैं कमज़ोर हवादिस भी कड़े हैं
ग़ज़ल में उर्दू शब्दों के अर्थ :-
मक़तल : क़त्ल करने की जगह
ख़िज़र : एक पैग़ंबर जिनके लिए मशहूर है कि उन्होंने
आब-ए-हयात(अमृत)पिया था और वह हमेशा जिंदा रहेंगे.
ताबूत : मुर्दे का संदूक
हवादिस : हादसे
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मक़तल : क़त्ल करने की जगह
ख़िज़र : एक पैग़ंबर जिनके लिए मशहूर है कि उन्होंने
आब-ए-हयात(अमृत)पिया था और वह हमेशा जिंदा रहेंगे.
ताबूत : मुर्दे का संदूक
हवादिस : हादसे
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ग़ज़ल
सोहन 'राही', यू.के.
ग़ज़ल
सोहन 'राही', यू.के.
मौत तो है ख़ामशी के बह्र की गहराइयाँ
ज़िंदगी है रौशनी के ताक़ पर परछाइयाँ
लुट गए ऐसे मिरे ख़ाबों के दिलकश कारवां
अब मिरे चारों तरफ़ हैं चीख़ती तन्हाइयाँ
एक शब मेरी तमन्नाएं भी थीं दुल्हन बनीं
हैं तआक़ुब में मिरे अब दर्द की शहनाइयाँ
मैं चराग़-ए-रहगुज़र रौशन सदाओं का हुजूम
और मेरे साथ हैं रातों की सब रुस्वाइयाँ
बस तुम्हारे नाम ही की शम्अ पर जलता रहूं
जब तलक हैं साथ 'राही' सांस की पुरवाइयाँ
शब्दार्थ :-
तआक़ुब : पीछा करना
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तआक़ुब : पीछा करना
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गीत
सोहन 'राही', यू.के.
जल कर राख बनोगे तब ही, मुक्ति कंगन अपनाओगे
अपने लहू को पानी करके, पात-पात पर लहराओगे
मन को फूंको तन भी जलाओ, यह जीवन का महा-यज्ञ है
जग के मंडप भीड़ पड़ी है, यहाँ यज्ञ है वहां यज्ञ है
तुम भी अपने कला-यज्ञ से, समय गीत को बुन जाओगे
जलकर राख बनोगे तब ही, मुक्ति कंगन अपनाओगे
अपने लहू को पानी करके, पात-पात पर लहराओगे
रंग-रंग में भेद छुपे हैं, पग-पग माया जाल बिछा है
हर इक मोड़ पे सोने का मृग, साथ में इक रावण भी खड़ा है
अब इस सोच को ओढ़ के चलना, इनसे कैसे बच पाओगे
जलकर राख बनोगे तब ही, मुक्ति कंगन अपनाओगे.
अपने लहू को पानी करके, पात-पात पर लहराओगे
धरती और आकाश का हर दुख, जनम मरण तक साथ रहेगा
क्या क्या शुभ है क्या अशुभ है, वो सब तेरे हाथ रहेगा
अपने शुभ कर्मों से 'राही' जीवन जोत जगा पाओगे.
जलकर राख बनोगे तब ही, मुक्ति कंगन अपनाओगे.
अपने लहू को पानी करके, पात-पात पर लहराओगे
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सोहन 'राही', यू.के.
जल कर राख बनोगे तब ही, मुक्ति कंगन अपनाओगे
अपने लहू को पानी करके, पात-पात पर लहराओगे
मन को फूंको तन भी जलाओ, यह जीवन का महा-यज्ञ है
जग के मंडप भीड़ पड़ी है, यहाँ यज्ञ है वहां यज्ञ है
तुम भी अपने कला-यज्ञ से, समय गीत को बुन जाओगे
जलकर राख बनोगे तब ही, मुक्ति कंगन अपनाओगे
अपने लहू को पानी करके, पात-पात पर लहराओगे
रंग-रंग में भेद छुपे हैं, पग-पग माया जाल बिछा है
हर इक मोड़ पे सोने का मृग, साथ में इक रावण भी खड़ा है
अब इस सोच को ओढ़ के चलना, इनसे कैसे बच पाओगे
जलकर राख बनोगे तब ही, मुक्ति कंगन अपनाओगे.
अपने लहू को पानी करके, पात-पात पर लहराओगे
धरती और आकाश का हर दुख, जनम मरण तक साथ रहेगा
क्या क्या शुभ है क्या अशुभ है, वो सब तेरे हाथ रहेगा
अपने शुभ कर्मों से 'राही' जीवन जोत जगा पाओगे.
जलकर राख बनोगे तब ही, मुक्ति कंगन अपनाओगे.
अपने लहू को पानी करके, पात-पात पर लहराओगे
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11 comments:
श्रध्देय महावीर जी, सादर प्रणाम
दोनों ग़ज़लें और, पढ़कर एकाएक कुछ कहने को भी शब्द नहीं मिल रहे..
राही साहब, मतला ही आगे नहीं बढ़ने दे रहा है
माज़ी की गुफाओं में जो टूटे से पड़े हैं
वह लम्हे तो अब भी मिरी आँखों में जड़े हैं
हर शेर शानदार, यादगार
मत देख मिरे प्यार को नफ़रत की नज़र से
माना की तिरे और तलबगार बड़े हैं
पूरा कलाम समाज के लिये पैग़ाम बन गया है
और खुद से यही कह रहा हूं
शाहिद, ये होती है शायरी
और ये होता है इंतख़ाब
दोनो ग़ज़लें और गीत कमाल के हैं ......... उस्तादों का कलाम पड़ने का कुछ और ही मज़ा होता है ...... और ये भूख आपके ब्लॉग पर आ कर ख़त्म हो जाती है .............
aadarniy mahaveerji,
gazal aour geet. masha allah, bahut hi bemisaal he.
है अपनी हथेली पे नई सुब्ह का सूरज
गो काली रवायत के मक़तल में खड़े हैं
waah.
लुट गए ऐसे मिरे ख़ाबों के दिलकश कारवां
अब मिरे चारों तरफ़ हैं चीख़ती तन्हाइयाँ
raahi ji ke she'ro me jabardast vazan he.aour geet apne aap me alag andaaz pesh kar rahaa he.
ग़ज़ल क़ाबिले-तारीफ़ है।
दोनो गज़लें और गीत कमाल के हैं । राही साहिब को पढवाने के लिये धन्यवाद दिल को छूने वाली प्रस्तुति
सोहन 'राही' जी की ग़ज़लें बयॉं हैं अपने आपमें कि अंदाज़-ए-बयॉं क्या होता है। हर शेर पूरी शिद्धत से अपनी बात कह रहा है। ग़ज़ल में जहॉं ड़ से बचने का प्रयास किया जाता है वहीं रदीफ में इसे निबाहना- कमाल ही है।
बहुत अच्छा और जीवन का संदेश देने वाला गीत है । हर इक छंद बोलता हुआ है फिर चाहे जीवन के महायज्ञ का हो या रंग भेद वाला हो । गीत पढ़कर आनंद आ गया । दादा भाई अब आपका भी एक गीत हो जाए ।
पहली ग़ज़ल का जबरदस्त मतला काबिले-तारीफ़ है। बहुत खूब सर! और फिर ये शेर "है अपनी हथेली पे नई सुब्ह का सूरज/गो काली रवायत के मक़तल में खड़े हैं" तो उफ़्फ़्फ़!!!
"ज़िंदगी है रौशनी के ताक़ पर परछाइयाँ" दूसरी ग़ज़ल का ये मिस्रा तो कातिलाना है सर जी...कातिलाना! और इस शेर पर "एक शब मेरी तमन्नाएं भी थीं दुल्हन बनीं/हैं तआक़ुब में मिरे अब दर्द की शहनाइयाँ" पर करोड़ों दाद!
गीत भी बेहतरीन बन पड़ा है।
महावीर जी, किंतु अपनी पुरानी शिकायत फिर से दोहराऊंगा कि एक साथ ये तीन-तीन रचनायें मत लगाया कीजिये...उलझन में पड़ जाते हैं हम जैसे पाठकगण।
Sohan rahi jo padhna ek sukhad anubhav hai
gazal behad pur asar lagi, aagaaz se ant tak
एक शब मेरी तमन्नाएं भी थीं दुल्हन बनीं
हैं तआक़ुब में मिरे अब दर्द की शहनाइयाँ
Daad ke saath ek sher shayar ki shaan mein
न्याय भी चुपचाप होकर देखता, सुनता रहा
कटघरे में देती थी जब बेगुनाही इम्तिहाँ
मन को मुग्ध करती हुईं अपने अप्रतिम रंगों की छाप छोडती तीनो ही रचनाएँ बेजोड़ हैं.... आनंद आ गया पढ़कर....आभार.
in teeno sundar rachnaon ko padvane ke liye mai aapka tatha Sohan Rahi jee ka aabhar prakat karta hoon ye rachnaen mun ko gehre chhu kar jeevan darshan ka ek nayaa sansar rach deti hein
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