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Thursday, 23 April 2009

दिव्या माथुर के कविता संग्रह 'झूठ, झूठ और झूठ' पर प्राण शर्मा का आलेख


सिर पर चढ़कर बोलती हैं झूठ, झूठ और झूठ
की कविताएं:

प्राण शर्मा

Your browser may not support display of this image.मेरी एक ग़ज़ल का एक शेर है :

झूठ का क्यों बोलबोला हो

लोग सच का गला दबाते हैं.

झूठ जीवन का अनिवार्य अंग बन जाए तो लोग सच का गला भला क्यों न दबायें. यदि झूठ बोलने से ही सब कुछ ठीक चलने लगे तो लोग झूठ को गले भला क्यों न लगायें? झूठ का तराज़ू ही कुछ ऐसा है कि झूठ का पलड़ा भारी है.

झूठ बोलना कोई नई चीज़ नहीं है.

दिव्या माथुर के काव्य संग्रह "झूठ,झूठ और झूठ" और "चंदन पानी" का लोकार्पण 25 अप्रैल, 2009 को नेहरू सेन्टर, लन्दन में होगा।

यह तब से है जब से मनुष्य की रचना हुई. तभी तो ऋषियों मुनियों ने गुहार लगाई सत्य बोलो, सत्यमेव जयते! लेकिन झूठ के भाग्य की क्या बात! ख़ूब पलपा और पनप रहा है. कोई क्षेत्र इस से अछूता नहीं है. झूठ कहाँ कहाँ नहीं बोला जाता? घर में, दफ़्तर में, संसद में और कचहरी में सब जगहों पर तो झूठ का आधिपत्य है. बाप बेटे से कहता है, ‘बेटे, अंकल से कह दे कि पापा घर मे नहीं हैं.धीरे धीरे बेटे की आदत में झूठ बोलना शुमार हो जाता है, “पापा मेरे पेट में दर्द है, मैं स्कूल नहीं जा सकता.पत्नी पति से झूठ बोलती है, “आपके दिये 500 पाउंड्स कबके ख़त्म हो गए.पति पत्नी से झूठ बोलता है, “आज दफ़्तर में बहुत काम है, देर हो जाएगी”. अभियुक्त को बचाने के लिए वकील क्या क्या झूठी गवाहियों और दलीलों को पेश नहीं करता अदालत में? रिश्ता जोड़ने के लिए माँ बाप बेटे की योग्यता और आय का क्या क्या बखान नहीं करते. लड़की वाले भी कहाँ कम हैं, वे अपनी बेटी को इतनी सुशीला बतलाते हैं कि मानो उससे बढ़कर और कोई चरित्रवान कन्या हो ही नहीं सकती इस संसार में.

मज़े की बात यह है कि कोई ये बात मानने को तैयार नहीं है कि वो झूठ बोलता है, “अजी, झूठ तो मुझसे कोसों दूर भागता है, झूठ का मुझसे क्या लेना देना? हर कोई अपने को सत्यवादी हरिशचन्द्र समझता है. झूठ के सभी रूपों को अंकित व चित्रित किया है आज की चर्चित कहानीकार और कवयित्री दिव्या माथुर ने अपने छठे कविता संग्रह, झूठ झूठ और झूठ, की मार्मिक व मर्मभेदी कविताओं में. दिव्या माथुर की काव्य संग्रह को पढ़ने से पहले मेरे दिमाग़ में यह ख़याल आया कि इसकी सभी कविताएं सशक्त होनी चाहिएं. इसके दो कारण थे. एक तो उनके संग्रह का शीषक ही कुछ ऐसा है सशक्त और नया! कहते हैं न कि मकान के बाहर की सुन्दरता उसके भीतर की भव्यता दर्शा देती है. दूसरा ये कि छोटी छोटी कविताओं में दिव्या की अभिव्यक्ति कमाल की होती है. उनमें हैं और वे बड़ी बड़ी बात कह जाती हैं. अतुकांत होते हुए भी उनकी कविताएं छन्दों का रस पैदा करती हैं. प्रसिद्ध आलोचक, कवि और कहानीकार, डा गंगा प्रसाद विमल के कथनानुसर्र, ‘दिव्या का विधान सहज व स्वानुभूत यथार्थ से अभिप्रेरित होने के साथ साथ संगीतात्मक लय से भी सम्पन्न है.

अपनी यही दक्षता दिव्या अपने अन्य काव्य संग्रहों : अंतःसलिला, ख़याल तेरा, रेत का लिखा, 11 सितम्बर और चन्दन पानी की कविताओं में भी दिखा चुकी हैं. उनकी अधिकांश कविताएं मेरे ह्रदय पटल पर आज भी अंकित हैं. गागर में सागर भरना वह खूब जानती हैं. उनकी कविता के बारे में कितना सटीक कहा है शिरीन इज़ाल ने, ‘दिव्या की कविता गहरी बात को सीधी सादी भाषा में कहने की क्षमता रखती है समुद्र की गहराइयों को महसूस किया जा सकता है, लहरों की आवाज़ सुनी जा सकती है और शोर मचाती ख़ामोशी को छुआ जा सकता है.

झूठ, झूठ और झूठ की सभी कविताएं पढ़ने के बाद मेरा ख़याल सही निकला. इस संग्रह की पहली कविता है, ‘पहला झूठ’ :भावों के गहरे रंग भरे हुए होते

जली हुई रुई की बत्ती

बड़ी आसानी से जल जाती है

नई बत्ती जलने में बड़ी देर लगाती है

आसान हो जाता है रफ़्ता रफ़्ता

है बस पहला झूठ ही

मुश्किल से निकलता.

इस कविता को पढ़ते हुए लगा कि मेरा सामना सीधे सीथे सच्चाई से हुआ हो. कविता मन को छू गई. संगीत की भाषा में कहूँ तो मन के तारों को झंकृत कर गई. शेष सभी कविताओं को भी पढ़ने की ललक पैदा हुई . रात का समय था और मेरी आदत है सोने से पहले रात को पढ़ने की, रजाई ओढ़कर. कविता या कहानी मार्मिक हो तो पढ़ने का लुत्फ़ ही कुछ और होता है.

दिव्या माथुर की कविताओं का जादू सर पर चढ़कर बोला ही नहीं, दिल में उतरा भी. ज्यों ज्यों उनकी कविताओं को पढ़ता गया त्यों त्यों तल्लीन होता गया. ऊंचे भाव, साफ़ सुथरी भाषा और स्पष्ट अभिव्यक्ति ऐसी कि जैसे सरिता में नावें निर्विध्न बही जा रही हों. व्यंग ऐसा कि दिल के आर पार हो आए. संग्रह कब पढ़ डाला पता ही नहीं चला.

मेरे लिए यह पहला अवसर था जब मैंने झूठ को लेकर इतनी सारी कविताएं पढ़ीं और कविताओं के ज़रिए मेरा सच्चाई से सामना हुआ. :

लोग सुबह से शाम तलक

सुनते बोलते और गुनते हैं

झूठ झूठ झूठ

तुक भरे झूठ बेतुके झूठ

मौके पर ग़ढे गए झूठ

अदा से पेश किए गए लखनवी झूठ

धड़ल्लेदार राजनैतिक झूठ

सहमे हुए कैदी झूठ

आँख चुराते कायर झूठ

दुबके हुए भयभीत झूठ/साफ़ दिखाई पड़ने वाले झूठ

सात पर्दों में छिपे झूठ

झूठ झूठ झूठ.

भले ही कोई कितना तीसमारखां क्यों न हो, झूठ किसी का लिहाज़ नहीं करता :

है झूठ का भी अपना एक मिज़ाज़

यदि करनी पर आ जाए तो ये करता नहीं लिहाज़

चाहे तो कुम्भकरण सा ये

सदियों तक सोता रहे

या फिर पारे की तरह

झटपट पोल खोल दे!

झूठ का सहारा लेने वाला सोचता है कि उसका झूठ कभी नहीं पकड़ा जाएगा. एक लोक कथा मुझे याद आती है : एक राजा की सुई चोरी हो गई. सभी दरबारियों से पूछताछ की गई, कोई नहीं माना कि उसने चोरी की है. चोर की चोरी पकड़ने के लिए राजा को एक तरकीब सूझी. उसने सभी दरबारियों को बुला कर कहा, चोर दरभार से भाग नहीं सकता. मैंने उए अच्छी तरह से पहचान लिया है. मैं देख सकता हूँ कि उसकी दाढ़ी में तिनका लगा हुआ है.राजा की इस बात को सुनते ही चोर का हाथ अपनी दाढ़ी पर चला गया. दिव्या माथुर ने इस विचार को अपनी कविता में बख़ूबी पिरोया है :

माथे पर लिखा है

आंखों से छलक रहा है

अपने सफ़ैद वस्त्रों में भी

छिपा न पाओगे तुम सफ़ैद झूठ!

क्योंकि : अपने झूठ का ढिंढोरा हम ख़ुद ही पीटते हैं

ये सोचकर कि हम से सच्चा कोई नहीं

डंके की चोट पर झूठ बोलते हैं.

इस संग्रह की कुछ कविताएं पति पत्नी की तकरार पर भी आधारित हैं पर देखिए उनका अन्दाज़ कितना नया है :

हर रात मैं

अपने पलंग की

चादर और तकिए के गिलाफ़ बदलती हूँ

हर रात तुम लौटते हो

बासी बासी!

एक और रंग देखिए :

तुम्हारे एक झूठ पर

टिकी थी

मेरी गृहस्थी

मेरे सपने

मेरी ख़ुशियाँ

तुम्हारा एक सुनामी सच

बहा ले गया

मेरा सब कुछ!

इस संग्रह की कुछ कविताएं ऐसी भी हैं जो बेईमानी, बहरूपिया, बुराई आदि विषयों पर आधारित हैं लेकिन इनकी इमारतें भी झूठ की नीवों पर ही खड़ी हैं मसलन :

शैतान का पिता है झूठ

लम्बा चौड़ा और मज़बूत

सच है गांधी जैसा कृशकाय

बदन पे धोती लटकाए!

अथवा मदद के नाम पर

हथियार बेचते हैं

और ख़रीदते हैं

धन उलीचते हैं

ये झूठे राजनीतिज्ञ

बस कब्रें सींचते हैं!

मेरे ख़याल में, झूठ का शायद ही ऐसा कोई रंग हो जो इस संग्रह में दिव्या माथुर ने छोड़ा हो. लगता है कि किसी अन्य रचनाकार के लिए कोई गुंजाइश ही न बची हो. अंत में एक गुज़ारिश, वो ये कि पाठक झूठ झूठ और झूठ की सीधी सादी भाषा में लिखी सहज और चुटीली कविताएं आदि से अंत तक अवश्य पढ़ें लेकिन इतना ख़याल रखें कि झूठ सिर पर चढ़ कर बोलता है!

प्राण शर्मा

कवैंट्री, यू.के.

Saturday, 14 February 2009

वैलेंटाइन की मौत के दिन उत्सव क्यों?

वैलेंटाइन की मौत के दिन उत्सव क्यों?

महावीर शर्मा


वैलेंटाइन को हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़ कर मृत्यु-मंच पर ले आए। लोगों के नारों से गन गूंज रहा था। जमीन आंसुओं से भीग गई थी। उसी समय वैलंटाइन ने ऊंचे स्वर में कहा :
'मेरे पवित्र अभियान को आंसुओं से दूषित ना करो। मेरी इच्छा है कि प्रेमी और प्रेमिकाएं हर वर्ष इस दिन आंसुओं का नहीं, प्रे का उपहार दें। मेरी मौत पर शोक, खेद और संताप का लेश-मात्र भी ना हो।"

प्रेम की वेदी पर शहीद होने वालों पर मातम नहीं किया जाता, गौरवमयी उत्सव द्वारा उनको श्रद्धांजली दी जाती है।

यह घटना सन् २७० ईस्वी की हैः

वैलंटाइन कारागार की कोठरी में फ़र्श पर बैठा हुआ था। जीवन के अंतिम दिनों को गिनते हुए आने वाली मौत की कल्पना से हृदय की धड़कनों की गति को संभालना कठिन हो रहा था। बाहर खड़े लोग खिड़की की सलाखों में से फूल बरसा रहे थे, उसकी रिहाई के नारों से चारों दिशाएं गूंज रही थीं। उसी समय सैनिकों की एक टुकड़ी ने आकर बिना चेतावनी दिए ही इन निहत्थे लोगों पर लाठियों की वर्षा कर, भीड़ को तितर बितर कर दिया। वैलंटाइन गहरी चिंता में सिर को नीचे किए बैठा हुआ था। अचानक दरवाज़ा खुला तो देखा कि कारापाल 'अस्टीरियस' एक युवती के साथकोठरी के अंदर प्रवेश कर रहे थे। कारापाल ने वैलंटाइन को अभिवादन कर नम्रता के साथ कहा,
'पादरी, यह मेरी बेटी जूलिया है। आप विद्वान हैं। धर्म, गणित, विज्ञान, अर्थ-शास्त्र जैसे अनेक विषयों में प्रख्यात हैं। अपने अंतिम दिनों में यदि आप जूलिया को इस असीम ज्ञान का कुछ अंश सिखा सकें तो आजीवन आभारी रहूंगा। सम्राट क्लॉडियस कीक्रूरता को कौन नहीं जानता, मैं उसके नारकीय निर्णय में तो हस्तक्षेप नहीं कर सकता किंतु आप जब तक इस कारागार में समय गुजारेंगे, उस समय तक आपकी सुविधा का पूरा ध्यान रखा जाएगा।

'वैलंटाइन की भीगी आंखें जूलिया की आंखों से टकराईं किंतु जूलिया के चेहरे के भाव-चिन्हों में कोई बदलाव नहीं आया। जेलर ने बताया कि जूलिया आंशिक रूप से अंधी है। उसे बहुत ही कम दिखाई देता है। अगले दिन की सांय का समय निश्चित होने के बाद जूलिया और जेलर चले गए। दरवाज़ा पहले की तरह बंद हो गया। इसी प्रकार जूलिया हर शाम वैलंटाइन से शिक्षा प्राप्त करती रही।

यह घटना तीसरी शताब्दी के समय की है। रोमन काल में सम्राट क्लॉडियस द्वितीय की क्रूरता से दूर दूर देशों के लोग तक थर्राते थे। उसकी महत्वाकांक्षा का कोई अंत नहीं था। वह चाहता था कि एक विशाल सेना लेकर समस्त संसार पर रोमन की विजय-पताका फहरा दे। उसके समक्ष एक कठिनाई थी। लोग सेना में भर्ती होने से इंकार करने लगे क्योंकि वे जानते थे कि क्लॉडियस की वजय-पिपासा कभी समाप्त नहीं होगी, सारा जीवन विभिन्न देशों में युद्ध करते करते समाप्त हो जाएगा। अपने परिवार और प्रिय-जनों से एक बार विलग होकर पुनः मिलने का कभीभी अवसर नहीं मिलेगा। इसी कारण, क्लॉडियस ने रोम में जितने भी विवाह होने वाले थे , रुकवा दिए। शादियां अवैध करार कर दी गईं। पति या पत्नी शब्द का अब कोई अर्थ नहीं रहा। जनता में चिंता की लहर दौड़ गई। यदि कोई विवाह करता पकड़ा जाता तो उसके साथ विवाह सम्पन्न करने वाले पादरी को भी कड़ा दण्ड दिया जाता। युवक उनकी इच्छा के विरुद्ध सेना में भर्ती कर लिए गए। कितनी ही युवतियों ने अपने प्रियतम के विरह में मृत्यु को गले लगा लिया।

प्रथा के अनुसार लड़के और लड़कियां अलग रखे जाते थे। 14 फरवरी के दिन विवाह की देवी 'जूनो' के सम्मान में नगर के सब व्यवसाय बंद कर दिए जाते थे। अगले दिन 15 फरवरी को 'ल्यूपरकेलिया' का उत्सव मनाया जाता और सांय के समय रोमन लड़कियों के नाम कागज़ की छोटी छोटी पर्चियों पर लिख कर एक बड़े बर्तन में रख दिए जाते। युवक बारी बारी एक पर्ची निकालते और उत्सव के दौरान वह उसी लड़की का साथी बना रहता। यदि साझेदारी प्यार में बदल जाती तो दोनों चर्च में जाकर विवाह-बंधन में बंध जाते। क्लॉडियस के इस निराधार कानून के कारण ल्यूपरकेलिया का यह त्यौहार समाप्त होगया।

वैलंटाइन ने प्रेमियों के दिलों में झांक कर उनकी व्यथा को देखा था। जानता था कि हृदयहीन क्लॉडियस का यह कानून अमानवीय था, प्रकृति के प्रतिकूल था, सृष्टि यहीं रुक जाएगी! सेंट मेरियस के सहयोग से इस कानून की अवेहलना करते हुए अपने चर्च में गुप्त-रूप से युवक और युवतियों के विवाह करवाते रहे। एक अंधेरी रात थी। झंझावात के साथ मूसलाधार वर्षा ने मानो सारे नगर को डुबोने की ठान ली हो। सेंट मेरियस उस रात कार्यवश कहीं दूर चला गया था। वैलंटाइन मोमबत्ती के धीमे से प्रकाश में एक जोड़े के विवाह की विधि संपूर्ण ही कर पाए थे, क्लॉडियस के सैनिकों के पदचाप सुनाई दिये। वैलंटाइन ने दोनों को चर्च के पिछले द्वार से निकालने का प्रयत्न किया किंतु जब तक सैनिक आ चुके थे, दोनों वर-वधू को को एक दूसरे से अलग कर दिया गया। वे दोनों कहां गए, उनका क्या हुआ, कोई नहीं जानता।

वैलंटाइन को कारागार में डाल दिया। उसे मृत्यु-दण्ड की सज़ा दी गई। उसके जीवन लीला की समाप्ति के लिए 14 फरवरी सन् 270 ई० का दिन निश्चित कर दिया गया। एक दिन पहले जूलिया वैलंटाइन से मिली, आंखें रो रो कर सूज गई थीं। इतने दिनों में दोनो के दिलों में पवित्र प्रेम की लहर पैदा हो चुकी थी। उसी लहरने उसके मनोबल को बनाए रखा। जूलिया के इन आंसुओं में दृष्टि के विकार भी बह गए थे। उसकी आंखें पहले से कुछ अधिक देखने के योग्य हो गईं। दोनों एक दूसरे से लिपट गए। वैलंटाइन ने मोमबत्ती की लौ को देख कर कहा,' जूलिया,शमा की इस लौ को जलाए रखना। मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। एक दिन क्लॉडियस स्वयं अपने ही बनाये हुए कानून के जाल में फंस जाएगा। प्रेम कभी किसी का दास नहीं होता।' थोड़ी देर के पश्चात जेल के दो सैनिकों ने आकर पादरी को प्रणाम किया और आदर सहित जूलिया को घर पहुंचा दिया।

ज़िंदगी की अंतिम रात वैलंटाइन ने कुछ एक कलम और कोरे कागज़ मंगवाए। कागजों में कुछ लिखता और फिर मोमबत्ती की लौ में जला देता। केवल एक कागज़ बचा हुआ था। उस कोरे कागज़ को आंखों से लगाया, फिर दिल के पास दबाए रखा। कलम उठाई, उ में कुछ लिखा और अंत में लिखा : "तुम्हारे वैलंटाइन की ओर से प्रेम सहित।" उसकी आंखों से दो आंसू ढुलक गए जो जमीन पर न गिर कर उस प्रेम-पत्र में समा गए। प्रहरी को बुला कर कहा, ' मेरे मरने के बाद यदि इस पत्र को जूलिया तक पहुंचा दो तो मरने के बाद भी मेरी आत्मा आभारी रहेगी।" प्रहरी के नेत्र सजल हो उठे, कहने लगा, 'पादरी महोदय, आप का जीवन बहुत मूल्यवान है। अभी भी मैं कोई उपाय सोचता हूं जिससे आप को कारागार से निकाल कर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाए। इस शुभ-कार्य में मुझे अपनी जान की परवाह नहीं है।' वैलंटाइन ने रोक कर कहा, "मेरे इस कार्य में कायरता की मिलावट की बात ना करो। मेरे बाद अनेक वैलंटाइन पैदा होंगे जो प्रेम की लौ जलाए रखेंगे।" प्रहरी ने कागज़ लेकर गीली आंखों को पोंछते हुए दरवाज़ा बंद कर दिया।

अगले दिन नगर-द्वार के पास, जो आज उसकी स्मृति में पोर्टा वैलटीनी नाम से विख्यात है, अनगिनित लोगों की भीड़ थी। जनता के चारों ओर सशस्त्र सैनिक तैनात थे। सैनिक वैलंटाइन को हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़ कर मृत्यु-मंच पर ले आए। लोगों के नारों से गगन गूंज रहा था, जमीन आंसुओं से भीग गई थी। उसी समय वैलंटाइन ने गर्व से मस्तक उठा कर ऊंचे स्वर में कहा:

'मेरे इस पवित्र अभियान को आंसुओं से दूषि ना करो। मेरी इच्छा है कि प्रेमी और प्रेमिकाएं हर वर्ष इस दिन आंसुओं का नहीं, प्रेम का उपहार दें। शोक, खेद और संताप का लेश-मात्र भी ना हो।"

वैलंटाइन को मंच पर रखे हुए तख्ते पर लिटा दिया गया। चार जल्लाद हाथों में भारी भारी दण्ड लिए हुए थे। पांचवे जल्लाद के हाथ में एक पैनी धार का फरसा था। दण्डाधिकारी ने ऊंचे स्वर में वैलंटाइन से कहा: 'वैलंटाइन, तुमने रोमन विधान की अवेहलना कर लोगों के विवाह करवाने से सम्राट क्लॉडियस का अपमान किया है। यह एक बहुत बड़ा अपराध है, पाप है जिसके लिए एक ही सज़ा है -निर्मम मृत्यु-दण्ड! तुम यदि अपने अपराध को स्वीकार कर लो तो फरसे से एक ही झटके से तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जायेगा और तुम्हारी मौत कष्टरहित होगी। यदि अपना अपराध स्वीकार नहीं करोगे तो इस बेरहमी से मारे जाओगे कि मौत के लिए याचना करोगे पर वो सामने नाच नाच कर तुम्हारे अपराध की याद दिलाती रहेगी।" वैलंटाइन के मुख पर भय के कोई चिन्ह दिखाई नहीं दे रहे थे। उसने दृढ़तापूर्वक कहा:
' मैंने कोई अपराध नहीं किया है। दो प्रेमियों को विवाह-बंधन में जोड़ना मेरा धर्म है,पाप नहीं है।" चारों ओर से एक ही आवाज़ आ रही थी - "पादरी वैलंटाइन निर्दोष है।"


दण्डाधिकारी का इशारा देखते ही चारों जल्लादों ने दण्ड को घुमा घुमा कर वैलंटाइन को मारना शुरू कर दिया। दर्शकों की चीखें निकल गई, कुछ तो इस दृश्य को देख क मूर्छित होगए। जनता के हाहाकार, क्रंदन और चीत्कार के शोर के अतिरिक्त कुछ सुनाई नहीं देता था। एक बार तो जल्लादों के पाषाण जैसे हृदय भी पिघलने लगे। थोड़ी ही देर में सब समाप्त हो गया। वैलंटाइन का निर्जीव शव रक्त से रंगा हुआ था। वैलंटाइन का शव रोम के एक चर्च में दफना दिया गया जो आज 'चर्च आव प्राक्सिडिस' के नाम से प्रसिद्ध है।


जूलिया में इतना साहस न था कि वह इस अमानवीय वीभत्स दृश्य को सहन कर सके। वह घर में ही रही। उसकी अंतिम घड़ियों को कल्पना के सहारे आंसुओं से धोती रही। उसी समय कारागार के प्रहरी ने आकर जूलिया को वैलंटाइन का लिखा पत्र देते हुए कहा, 'पादरी ने कल रात यह पत्र आपके लिए लिखा था।' प्रहरी आंखों को पोंछता हुआ चला गया। जूलिया ने पत्र खोला तो वैलंटाइन के अमोल आंसू के चिन्ह ऐसे दिखाई दे रहे थे जैसे वैलंटाइन की आंखें अलविदा कह रही हों। बार बार पढ़ती रही जब तक आंसुओं से पत्र भीग भीग कर गल गया। पत्र के अंत में लिखा थाः "तुम्हारे वैलंटाइन की ओर से प्रेम सहित!"

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१९वी शताब्दी के कुछ विक्टोरियन वैलेंटाइन कार्ड:-