सिर पर चढ़कर बोलती हैं “झूठ, झूठ और झूठ”
की कविताएं:
प्राण शर्मा
‘झूठ का क्यों न बोलबोला हो
लोग सच का गला दबाते हैं.’
झूठ जीवन का अनिवार्य अंग बन जाए तो लोग सच का गला भला क्यों न दबायें. यदि झूठ बोलने से ही सब कुछ ठीक चलने लगे तो लोग झूठ को गले भला क्यों न लगायें? झूठ का तराज़ू ही कुछ ऐसा है कि झूठ का पलड़ा भारी है.
झूठ बोलना कोई नई चीज़ नहीं है. दिव्या माथुर के काव्य संग्रह "झूठ,झूठ और झूठ" और "चंदन पानी" का लोकार्पण 25 अप्रैल, 2009 को नेहरू सेन्टर, लन्दन में होगा।
मज़े की बात यह है कि कोई ये बात मानने को तैयार नहीं है कि वो झूठ बोलता है, “अजी, झूठ तो मुझसे कोसों दूर भागता है, झूठ का मुझसे क्या लेना देना? हर कोई अपने को सत्यवादी हरिशचन्द्र समझता है. झूठ के सभी रूपों को अंकित व चित्रित किया है आज की चर्चित कहानीकार और कवयित्री दिव्या माथुर ने अपने छठे कविता संग्रह, झूठ झूठ और झूठ, की मार्मिक व मर्मभेदी कविताओं में. दिव्या माथुर की काव्य संग्रह को पढ़ने से पहले मेरे दिमाग़ में यह ख़याल आया कि इसकी सभी कविताएं सशक्त होनी चाहिएं. इसके दो कारण थे. एक तो उनके संग्रह का शीषक ही कुछ ऐसा है – सशक्त और नया! कहते हैं न कि मकान के बाहर की सुन्दरता उसके भीतर की भव्यता दर्शा देती है. दूसरा ये कि छोटी छोटी कविताओं में दिव्या की अभिव्यक्ति कमाल की होती है. उनमें हैं और वे बड़ी बड़ी बात कह जाती हैं. अतुकांत होते हुए भी उनकी कविताएं छन्दों का रस पैदा करती हैं. प्रसिद्ध आलोचक, कवि और कहानीकार, डा गंगा प्रसाद विमल के कथनानुसर्र, ‘दिव्या का विधान सहज व स्वानुभूत यथार्थ से अभिप्रेरित होने के साथ साथ संगीतात्मक लय से भी सम्पन्न है.’
अपनी यही दक्षता दिव्या अपने अन्य काव्य संग्रहों : अंतःसलिला, ख़याल तेरा, रेत का लिखा, 11 सितम्बर और चन्दन पानी की कविताओं में भी दिखा चुकी हैं. उनकी अधिकांश कविताएं मेरे ह्रदय पटल पर आज भी अंकित हैं. गागर में सागर भरना वह खूब जानती हैं. उनकी कविता के बारे में कितना सटीक कहा है शिरीन इज़ाल ने, ‘दिव्या की कविता गहरी बात को सीधी सादी भाषा में कहने की क्षमता रखती है – समुद्र की गहराइयों को महसूस किया जा सकता है, लहरों की आवाज़ सुनी जा सकती है और शोर मचाती ख़ामोशी को छुआ जा सकता है.’
झूठ, झूठ और झूठ की सभी कविताएं पढ़ने के बाद मेरा ख़याल सही निकला. इस संग्रह की पहली कविता है, ‘पहला झूठ’ :भावों के गहरे रंग भरे हुए होते
जली हुई रुई की बत्ती
बड़ी आसानी से जल जाती है
नई बत्ती जलने में बड़ी देर लगाती है
आसान हो जाता है रफ़्ता रफ़्ता
है बस पहला झूठ ही
इस कविता को पढ़ते हुए लगा कि मेरा सामना सीधे सीथे सच्चाई से हुआ हो. कविता मन को छू गई. संगीत की भाषा में कहूँ तो मन के तारों को झंकृत कर गई. शेष सभी कविताओं को भी पढ़ने की ललक पैदा हुई . रात का समय था और मेरी आदत है सोने से पहले रात को पढ़ने की, रजाई ओढ़कर. कविता या कहानी मार्मिक हो तो पढ़ने का लुत्फ़ ही कुछ और होता है.
दिव्या माथुर की कविताओं का जादू सर पर चढ़कर बोला ही नहीं, दिल में उतरा भी. ज्यों ज्यों उनकी कविताओं को पढ़ता गया त्यों त्यों तल्लीन होता गया. ऊंचे भाव, साफ़ सुथरी भाषा और स्पष्ट अभिव्यक्ति ऐसी कि जैसे सरिता में नावें निर्विध्न बही जा रही हों. व्यंग ऐसा कि दिल के आर पार हो आए. संग्रह कब पढ़ डाला पता ही नहीं चला.
मेरे लिए यह पहला अवसर था जब मैंने झूठ को लेकर इतनी सारी कविताएं पढ़ीं और कविताओं के ज़रिए मेरा सच्चाई से सामना हुआ. :
लोग सुबह से शाम तलक
सुनते बोलते और गुनते हैं
झूठ झूठ झूठ
तुक भरे झूठ बेतुके झूठ
मौके पर ग़ढे गए झूठ
अदा से पेश किए गए लखनवी झूठ
धड़ल्लेदार राजनैतिक झूठ
सहमे हुए कैदी झूठ
आँख चुराते कायर झूठ
दुबके हुए भयभीत झूठ/साफ़ दिखाई पड़ने वाले झूठ
सात पर्दों में छिपे झूठ
झूठ झूठ झूठ.
भले ही कोई कितना तीसमारखां क्यों न हो, झूठ किसी का लिहाज़ नहीं करता :
है झूठ का भी अपना एक मिज़ाज़
यदि करनी पर आ जाए तो ये करता नहीं लिहाज़
चाहे तो कुम्भकरण सा ये
सदियों तक सोता रहे
या फिर पारे की तरह
झटपट पोल खोल दे!
झूठ का सहारा लेने वाला सोचता है कि उसका झूठ कभी नहीं पकड़ा जाएगा. एक लोक कथा मुझे याद आती है : एक राजा की सुई चोरी हो गई. सभी दरबारियों से पूछताछ की गई, कोई नहीं माना कि उसने चोरी की है. चोर की चोरी पकड़ने के लिए राजा को एक तरकीब सूझी. उसने सभी दरबारियों को बुला कर कहा, चोर दरभार से भाग नहीं सकता. मैंने उए अच्छी तरह से पहचान लिया है. मैं देख सकता हूँ कि उसकी दाढ़ी में तिनका लगा हुआ है.’ राजा की इस बात को सुनते ही चोर का हाथ अपनी दाढ़ी पर चला गया. दिव्या माथुर ने इस विचार को अपनी कविता में बख़ूबी पिरोया है :
माथे पर लिखा है
आंखों से छलक रहा है
अपने सफ़ैद वस्त्रों में भी
छिपा न पाओगे तुम सफ़ैद झूठ!
क्योंकि : अपने झूठ का ढिंढोरा हम ख़ुद ही पीटते हैं
ये सोचकर कि हम से सच्चा कोई नहीं
डंके की चोट पर झूठ बोलते हैं.
इस संग्रह की कुछ कविताएं पति पत्नी की तकरार पर भी आधारित हैं पर देखिए उनका अन्दाज़ कितना नया है :
हर रात मैं
अपने पलंग की
चादर और तकिए के गिलाफ़ बदलती हूँ
हर रात तुम लौटते हो
बासी बासी!
एक और रंग देखिए :
तुम्हारे एक झूठ पर
टिकी थी
मेरी गृहस्थी
मेरे सपने
मेरी ख़ुशियाँ
तुम्हारा एक सुनामी सच
बहा ले गया
मेरा सब कुछ!
इस संग्रह की कुछ कविताएं ऐसी भी हैं जो बेईमानी, बहरूपिया, बुराई आदि विषयों पर आधारित हैं लेकिन इनकी इमारतें भी झूठ की नीवों पर ही खड़ी हैं मसलन :
शैतान का पिता है झूठ
लम्बा चौड़ा और मज़बूत
सच है गांधी जैसा कृशकाय
बदन पे धोती लटकाए!
अथवा मदद के नाम पर
हथियार बेचते हैं
और ख़रीदते हैं
धन उलीचते हैं
ये झूठे राजनीतिज्ञ
बस कब्रें सींचते हैं!
मेरे ख़याल में, झूठ का शायद ही ऐसा कोई रंग हो जो इस संग्रह में दिव्या माथुर ने छोड़ा हो. लगता है कि किसी अन्य रचनाकार के लिए कोई गुंजाइश ही न बची हो. अंत में एक गुज़ारिश, वो ये कि पाठक झूठ झूठ और झूठ की सीधी सादी भाषा में लिखी सहज और चुटीली कविताएं आदि से अंत तक अवश्य पढ़ें लेकिन इतना ख़याल रखें कि झूठ सिर पर चढ़ कर बोलता है!
प्राण शर्मा
कवैंट्री, यू.के.