संक्षिप्त परिचय:
नाम: डी.के.सचदेवा. तख़ल्लुस: 'मुफ़लिस'
आप काव्य-पुस्तकों पर समीक्षा, ग़ज़ल, दोहे, कविता आदि लिखते रहते हैं. पिछले दिनों देहरादून से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका 'सरस्वती-सुमन' के गज़ल-विशेषांक का सम्पादन किया है और उस पत्रिका के सम्पादन-परामर्श मण्डल के सदस्य हैं. पत्रिका 'भाषा वाहिनी' और 'दमयंती' में विशेष योगदान और राष्ट्र स्तर की विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
सम्प्रति: बैंक कर्मी
ग़ज़ल
हुआ जो आज फिर इक हादसा, तो सोचना कैसा
अना ही मर चुकी हो, तो भला कैसा बुरा कैसा
दग़ा, मतलब -परस्ती, और ख़ुद-गर्ज़ी, रियाकारी,
हुआ इंसान अपने आप में ही मुब्तिला कैसा
मसाईल है अगर कोई, चलो, आपस में निपटा लें,
कोई दूजा भला आकर करेगा फ़ैसला कैसा
निभा पाए न हम दोनों ही आपस-दारियां अपनी,
मुझे तुम से गिला कैसा, तुम्हें मुझ से गिला कैसा
न हों ये सरहदें, नक्शे, न हों चालें सियासत की
दिलों से ही मिटा दो दूरियां, तो फ़ासला कैसा
फ़क़त हिन्दू मुसलमां हैं, नहीं इंसान अब कोई
किताबों से अयाँ होने लगा अब फलसफा कैसा ?
मिला सब कुछ ख़ुदा के फ़ैज़ से इंसान को, लेकिन,
नशे में चूर ये इंसान कहता है, ख़ुदा कैसा ?
न जाने और कितनी बस्तियों में आग फैलेगी ,
तशद्दद और दहशत का चला ये सिलसिला कैसा
फ़क़त इक जिस्म बन कर रह गया है आज का इन्सां,
बिना एहसास जे भी जी रहा है, सानिहा कैसा !
न रस्मो-राह आपस में, न पहली-सी मुहोब्बत है,
नयी तहज़ीब पर 'मुफ़लिस' करे अब तब्सिरा कैसा.
मुफ़लिस
लुधिआना, पंजाब, भारत .
हुआ जो आज फिर इक हादसा, तो सोचना कैसा
अना ही मर चुकी हो, तो भला कैसा बुरा कैसा
दग़ा, मतलब -परस्ती, और ख़ुद-गर्ज़ी, रियाकारी,
हुआ इंसान अपने आप में ही मुब्तिला कैसा
मसाईल है अगर कोई, चलो, आपस में निपटा लें,
कोई दूजा भला आकर करेगा फ़ैसला कैसा
निभा पाए न हम दोनों ही आपस-दारियां अपनी,
मुझे तुम से गिला कैसा, तुम्हें मुझ से गिला कैसा
न हों ये सरहदें, नक्शे, न हों चालें सियासत की
दिलों से ही मिटा दो दूरियां, तो फ़ासला कैसा
फ़क़त हिन्दू मुसलमां हैं, नहीं इंसान अब कोई
किताबों से अयाँ होने लगा अब फलसफा कैसा ?
मिला सब कुछ ख़ुदा के फ़ैज़ से इंसान को, लेकिन,
नशे में चूर ये इंसान कहता है, ख़ुदा कैसा ?
न जाने और कितनी बस्तियों में आग फैलेगी ,
तशद्दद और दहशत का चला ये सिलसिला कैसा
फ़क़त इक जिस्म बन कर रह गया है आज का इन्सां,
बिना एहसास जे भी जी रहा है, सानिहा कैसा !
न रस्मो-राह आपस में, न पहली-सी मुहोब्बत है,
नयी तहज़ीब पर 'मुफ़लिस' करे अब तब्सिरा कैसा.
मुफ़लिस
लुधिआना, पंजाब, भारत .
अगला अंक: 9 मई 2009
महावीर शर्मा की दो ग़ज़लें
26 comments:
very good blog, congratulations
regard from Reus Catalonia
thank you
निभा पाए न हम दोनों ही आपस-दारियां अपनी,
मुझे तुम से गिला कैसा, तुम्हें मुझ से गिला कैसा
मुफलिस जि की इतनी khoobsorat ग़ज़ल पढ़ कर aanand aa गया.............सब शेर एक से badh कर एक हैं........
क्या बात है !! बहुत बहुत शुक्रिया "मुफ़लिस" साहब की ग़ज़ल पढ़वाने का ...
MUFLIS JEE KEE GAZAL SAM SAMYIK HAI
HAR SHER UMDAA HAI.BADHAAEE.
गुरु देव को सादर प्रणाम,
आपकी कुशलता चाहता हूँ सबसे पहले तो.... ये तो एहसान की तरह है और आपके आर्शीवाद की तरह की इतनी बढ़िया बढ़िया गज़लें पढ़ने को मिल रही है ... आज की ग़ज़ल में मुफलिस साहिब की ग़ज़ल के बारे में क्या कहने और ऊपर से शे'र उफ्फ्फ बेहद उम्दा... बहोत ही भरोसे लिखी गयी है...
मिला सब कुछ ख़ुदा के फ़ैज़ से इंसान को, लेकिन,
नशे में चूर ये इंसान कहता है, ख़ुदा कैसा ?
बहोत बहोत बधाई मुफलिस साहिब को इस खुबसूरत ग़ज़ल के लिए...
सादर .
अर्श
वाह! मुफ़लिस साहब की गज़लें बहुत अच्छी होती हैं, वैसे ही। ये ग़ज़ल भी उम्दा।
निभा पाए न हम दोनों ही आपस-दारियां अपनी,
मुझे तुम से गिला कैसा, तुम्हें मुझ से गिला कैसा
वाह! क्या बात कही है।
जो जो कहा है
बखूबी कहा है
हर खूबी है
वजनदार उसूली है।
महावीर जी आपका ऋणि हो गया हूँ...मुफ़लिस जी की तस्वीर के लिये। कब से उनसे जिद कर रहा था कि अपनी एक प्यारी-सी तस्वीर लगावं....उनकी ग़ज़लो पे कुछ कहना तो हैसियत से बाहर जाने वाली बात होगी...
उनका, उनकी ग़ज़लों का, उनकी बातों का, उनकी सिम्प्लीसिटी का, उनके अकूत ग्यान-भंडार का, और वो जो मुझ अदने को समय देते हैं- इन सब का कब से मुरीद बना बैठा हूँ।
और फिर उनकी कलम से निकली एक और बेशकिमती ग़ज़ल ’अना ही मर चुकी हो, तो भला कैसा बुरा कैस”.....उफ़्फ़्फ़्फ़!!
हर इक शेर पे बस वाह वाह !!!
आपका एक बार फिर से बहुत-बहुत शुक्रिया महावीर जी..
निभा पाए न हम दोनों ही आपस-दारियां अपनी,
मुझे तुम से गिला कैसा, तुम्हें मुझ से गिला कैसा
लाजवाब.....!!
मुफलिस जी तो हर क्षेत्र में लाजवाब हैं....इनकी नज्में भी उतनी ही बेमिसाल होती हैं जितनी गज़लें ....और समिक्षा करते वक़्त तो ये चार चाँद लगा देते हैं.....बहुत बहुत आभार मुफलिस जी की ग़ज़ल पेश करने के लिए.....!!
मुफलिस जी की गजल तो बहुत सुन्दर पढ़वाई आपने और परिचय सोने पर सुहागा रहा अभी तक केवल आपके नाम से परिचित था हर शेर बेहतरीन लगा वर्ना एकाध शेर लिख कर जरूर कहते की ये पसंद आया अब पूरी गजल ही कमेन्ट में कॉपी करना भी अच्छा नहीं लगता
वीनस केसरी
आदरणीय महावीर जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया जो ये नायाब ग़ज़ल पढने का मौका दिया... मुफलिस साहेब की शायरी की बारे में क्या कहूँ...मैं इस लायक ही नहीं हूँ....आज के हालत पर क्या खूबसूरत शेर कहें हैं इस ग़ज़ल में की कलम चूमने को जी करता है...वाह...ऊपर वाले से दुआ मांगते हैं की इनकी कलम का ये जादू हमेशा पढने वालों के सर चढ़ कर बोले ..आमीन
नीरज
मुफलिस जी को बहुत बहुत बधाई खूबसूरत गज़ल के लिये
महावीर जी का बहुत बहुत आभार,,,,
गजल तो शानदार है ही,,,,आपकी बदौलत मुफलिस जी के चाहने वालों को उनका दीदार भी हुआ,,,,,ये कमाल तो बस आप ही करवा सके हैं महावीर जी,,,,
आपका एक बार फिर से शुक्रिया,,,,,,,,,
गजल हमेशा की तरह लाजवाब,,,
कह जाती है के मुफलिस की ही गजल है,,,,,,
आपका एक बार फिर से शुक्रिया आदरणीय महावीर जी ,मुफलिस जी की उम्दा ग़ज़ल के लिए ....
हुआ जो आज फिर इक हादसा, तो सोचना कैसा
अना ही मर चुकी हो, तो भला कैसा बुरा कैसा
bahut khoob!
न रस्मो-राह आपस में, न पहली-सी मुहोब्बत है,
नयी तहज़ीब पर 'मुफ़लिस' करे अब तब्सिरा कैसा
bahut khoob!
ek sanzeedaa shayar se parichay ke liye dhanyvaad.
निभा पाए न हम दोनों ही आपस-दारियां अपनी,
मुझे तुम से गिला कैसा, तुम्हें मुझ से गिला कैसा
हुआ जो आज फिर इक हादसा, तो सोचना कैसा
अना ही मर चुकी हो, तो भला कैसा बुरा कैसा
न रस्मो-राह आपस में, न पहली-सी मुहोब्बत है,
नयी तहज़ीब पर 'मुफ़लिस' करे अब तब्सिरा कैसा
लाजवाब.......
हर सप्ताह रविवार को तीनों ब्लागों पर नई रचनाएं डाल रहा हूँ। हरेक पर आप के टिप्पणी का इन्तज़ार है.....
मुझे यकीन है आप के आने का...और यदि एक बार आप का आगमन हुआ फ़िर..आप तीनों ब्लागों पर बार -बार आयेंगे.........मुझे यकीन है....
मुफलिस जी की गजल पढ़कर आनंद गया. हर शे'र
इंसानों रिश्तों पर तो हैं ही, भारत-पाकिस्तान के संबंधों के सच भी उजागर करते हैं.
प्रेषक: महावीर शर्मा
मसाईल है अगर कोई, चलो, आपस में निपटा लें,
कोई दूजा भला आकर करेगा फ़ैसला कैसा..khuubsurat baat...shukriyaa
अपने नायाब ब्लॉग पर मेरी ग़ज़ल शाए करने
के लिए सब से पहले
क़ाबिले एहतराम जनाब महावीर जी का
बहुत बहुत शुक्रिया अदा करता हूँ....
और फिर आप सब आलिम-फाजिल
ख्वातीनो-हज़रात का भी शुक्रिया,
जिन्हों ने ग़ज़ल को न सिर्फ पढा बल्कि
इसकी तारीफ कर के
मेरी हौसला-अफ़जाई भी की ....
जनाब प्राण साहब और मुहतरम जनाब सलिल जी का खुलूस भी मिला ...फख्र महसूस करता हूँ .
आने वाली पोस्ट में महावीर जी की ग़ज़लों का शिद्दत से इंतज़ार रहेगा .......
एक बार फिर से आप सब का शुक्रिया !!
खैर-ख्वाह ,
---मुफलिस---
जनाब 'मुफ़लिस' साहेब, 'महावीर' ब्लाग पर आपका स्वागत है. ग़ज़ल के हर लफ़्ज़, हर शेर दिल को छू गया। एक नियाहत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल इनायत करने के लिए दाद और शुक्रिया क़ुबूल फ़रमाएं।
... बेहद खूबसूरत गजल है, दिल को छूने वाली अभिव्यक्ति है, .... शुक्रिया ... बधाईयाँ ।
भाई मुझे देर से आने के लिए के लिए क्षमा करें.
मुफ़लिस साहब को पढ़ कर हमेशा सुकून मिलता है
फ़क़त इक जिस्म बन कर रह गया है आज का इन्सां,
बिना एहसास के भी जी रहा है, सानिहा कैसा !
फ़क़त हिन्दू मुसलमां हैं, नहीं इंसान अब कोई
किताबों से अयाँ होने लगा अब फलसफा कैसा ?
बहुत ख़ूब
सादर
द्विज
दिलनशीँ है कलाम मुफलिस का
कारगर है पयाम मुफलिस का
उनकी ग़ज़लेँ हैँ वक़्त की आवाज़
हर ज़ुबाँ पर है नाम मुफलिस का
उनका उप नाम हो भले मुफलिस
हर कोई है ग़ुलाम मुफलिस का
अहमद अली बर्क़ी आज़मी
http://aabarqi.webs.com
http://draabarqi.tripod.com
http://aabarqi.blogspot.com
Bahut Khoob Muflis ji. Mera favorite She'r
फ़क़त इक जिस्म बन कर रह गया है आज का इन्सां,
बिना एहसास जे भी जी रहा है, सानिहा कैसा !
God bless!
RC
aadarniya mahaveer ji aur muflis ji .. aap dono ka shukriya ki itni behatreen gazal ko padhne ka mauka mila ...
न हों ये सरहदें, नक्शे, न हों चालें सियासत की
दिलों से ही मिटा दो दूरियां, तो फ़ासला कैसा
wah wah ,kya baat kahi aapne ji ... muflis ji mere guru hai .. mera naman , is gazal ke liye ....
aabhar
मतले से मक़ते के दर्मियान किसी एक शेर की तारीफ़ करना पूरी ग़ज़ल के साथ नाइंसाफ़ी होगी
बेहद उम्दा कलाम,
मुआशरे की हक़ीक़तों को तो बयान करती ही है ये ग़ज़ल
अपनी परम्परा को भी निभाती है
मोहतरम महावीर जी .आप का बहुत बहुत शुक्रिया
ऐसी ख़ूबसूरत ग़ज़ल पढ़वाने के लिये
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