परिंदा याद का मेरी मुंडेरी पर नहीं आया
कोई भटका हुआ राही पलट कर घर नहीं आया
सभी ने ओढ़ कर चादर उदासी की यही सोचा
शजर पर क्यों बहारों का नया मंज़र नहीं आया
मेरे हाथों की गर्मी से कहीं मुरझा न जाए वो
इसी डर से मैं नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया
मुखोटा दर मुखोटा थी हँसी , बस इसलिए ही तो
छुपा था जो मुखोटे में नज़र ख़ंजर नहीं आया
चुभे हैं दिल में तेरे ऐ 'उषा' कुछ दर्द के कांटे
है अचरज क्यों उभर कर आह का एक स्वर नहीं आया
उषा राजे सक्सेना
****************
फ़ज़ां का रंग क्यूँ बदला हुआ सा लगता है
ये सारा शहर क्यूँ जलता हुआ सा लगता है
हरेक शख़्स ये कहता हुआ सा लगता है
लहू का रंग कुछ बदला हुआ सा लगता है
ये ऐसा दौर है जिसमें कि झूट जीत गया
जो सच्चा था, वही हारा हुआ सा लगता है
ज़रा ये सोचिए क्या बात है कि दुनिया में
हरेक आदमी सहमा हुआ सा लगता है
हरेक दिल में कोई धुंध और धुआं है 'उषा'
है कैसा वक़्त जो ठहरा हुआ सा लगता है
उषा राजे सक्सेना
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कोई भटका हुआ राही पलट कर घर नहीं आया
सभी ने ओढ़ कर चादर उदासी की यही सोचा
शजर पर क्यों बहारों का नया मंज़र नहीं आया
मेरे हाथों की गर्मी से कहीं मुरझा न जाए वो
इसी डर से मैं नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया
मुखोटा दर मुखोटा थी हँसी , बस इसलिए ही तो
छुपा था जो मुखोटे में नज़र ख़ंजर नहीं आया
चुभे हैं दिल में तेरे ऐ 'उषा' कुछ दर्द के कांटे
है अचरज क्यों उभर कर आह का एक स्वर नहीं आया
उषा राजे सक्सेना
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फ़ज़ां का रंग क्यूँ बदला हुआ सा लगता है
ये सारा शहर क्यूँ जलता हुआ सा लगता है
हरेक शख़्स ये कहता हुआ सा लगता है
लहू का रंग कुछ बदला हुआ सा लगता है
ये ऐसा दौर है जिसमें कि झूट जीत गया
जो सच्चा था, वही हारा हुआ सा लगता है
ज़रा ये सोचिए क्या बात है कि दुनिया में
हरेक आदमी सहमा हुआ सा लगता है
हरेक दिल में कोई धुंध और धुआं है 'उषा'
है कैसा वक़्त जो ठहरा हुआ सा लगता है
उषा राजे सक्सेना
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अगला अंक: २३ मई २००९
यू.के. से वरिष्ठ ग़ज़लकार, समीक्षक, कहानीकार 'प्राण शर्मा' की दो ग़ज़लें
35 comments:
USHAA JI KI GAZALEN BAHOT ACHEE LAGEE ..BAHOT HI SUNDAR KHAYAALAAT SE KAHI GAYEE HAI DONO HI GAZAL...
AUR GURU DEV AAPKI PICHALI DONO GAZALON KI MADHOSHI ABHI TAK CHHAAYEE HAI...BAHOT BAHOT BADHAAYEE AUR AABHAAR AAPKA
ARSH
उषा जी की गजलें पढकर अच्छा लगा। शुक्रिया।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
परिंदा याद का मेरी मुंडेरी पर नहीं आया
कोई भटका हुआ राही पलट कर घर नहीं आया ...बहुत खूब
फिजां का रंग क्यूँ बदला हुआ सा लगता है
ये सारा शहर क्यूँ जलता हुआ सा लगता है
कमाल की ग़ज़ल है उषा जी
मेरे हाथों की गर्मी से कहीं मुरझा न जाए वो
इसी डर से मैं नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया
ऊषा जी की दोनों ही ग़ज़लें लाजवाब हैं.............हर शेर नयी ताजगी लिए हुवे है.............
ये ऐसा दौर है जिसमें कि झूट जीत गया
जो सच्चा था, वही हारा हुआ सा लगता है
वास्तविकता की बहूत करीब है.............
परिंदा याद का मेरी मुंडेरी पर नहीं आया
कोई भटका हुआ राही पलट कर घर नहीं आया
usha ji ki donon gazlen behatareen, padhane ke liye aabhaar.
मुखोटा दर मुखोटा थी हँसी , बस इसलिए ही तो
छुपा था जो मुखोटे में नज़र ख़ंजर नहीं आया
ये ऐसा दौर है जिसमें कि झूट जीत गया
जो सच्चा था, वही हारा हुआ सा लगता है
उषा जी ने बहुत सीधी सादी ज़बान में आज के हालत पर बहुत खूबसूरत शेर कहें हैं...दोनों ग़ज़लें इस मामले में बेहतरीन हैं...आप का बहुत बहुत शुक्रिया उन्हें पढ़वाने का....हम तो उन्हें अभी तक एक शशक्त कहानीकार ही समझते आये थे...लेकिन ग़ज़ल लेखन का उनका ये हुनर देख कर दंग हैं...
नीरज
उशा जी की अब तक सिर्फ़ कहानियां पढी थीं, आज उन का यह नया रूप देख कर सुखद आश्चर्य हुआ । दोनों ही गज़लें अपनी कोमलता, संवेदना के साथ साथ चुभती भी हैं ।
>मेरे हाथों की गर्मी से कहीं मुरझा न जाए वो
>इसी डर से मैं नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया
इन बेह्तरीन गज़लों को हम तक पहुँचाने के लिये आभार ।
दोनों ही ग़ज़लें बेहतरीन हैं ऊषा जी को बधाई और आप भी इस प्रस्तुति के लिये साधुवाद स्वीकारें
मुखोटा दर मुखोटा थी हँसी, बस इसलिए ही तो
छुपा था जो मुखोटे में नज़र ख़ंजर नहीं आया
***
मेरे हाथों की गर्मी से कहीं मुरझा न जाए वो
इसी डर से मैं नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया
बहुत ही ग़ज़ब ग़ज़लें हैं। शायर और संपादक दोनों को बधाई।
हरेक दिल में कोई धुंध और धुआं है 'उषा'
है कैसा वक़्त जो ठहरा हुआ सा लगता है
मुखोटा दर मुखोटा थी हँसी , बस इसलिए ही तो
छुपा था जो मुखोटे में नज़र ख़ंजर नहीं आया
क्या कहने! वाह!
मुखोटा दर मुखोटा थी हँसी , बस इसलिए ही तो
छुपा था जो मुखोटे में नज़र ख़ंजर नहीं आया
बहुत खूब ! आज के मुखौटाधारी परिवेश में जी रहे
इंसान की सच्ची तस्वीर खींची है ......
दोनों ग़ज़लें उषा जी की सादिक़ शख्सियत को दर्शाने
में कामयाब रही हैं..... बधाई स्वीकारें
---मुफलिस---
Behtareen!
shukriya
पहली गजल के हर शेर को बार बार पढ़ा
हर शेर की बानगी क्या खूब है कहा नहीं जा रहा
बहुत सुन्दर गजल
एक परिपक्व गजल, दिल खुश हो गया
दूसरी गजल के तेवर बहुत पसंद आये
वीनस केसरी
बहुत खुबसूरत गजल
उषाजी की कहानियोँ की मैँ फैन हूँ आज गज़ल पढकर दिल खुश हो गया आदरणीय महावीर जी
इन्हेँ प्रेषित करने के लिये
आपका शुक्रिया
सादर, स -स्नेह,
-लावण्या
महावीर जी ,
बहुत बहुत आभार है आपका उए नायाब गजलें पढाने के लिए,,,
वाकई मजा आया,,
मेरे हाथों की गर्मी से कहीं मुरझा न जाए वो
इसी डर से मैं नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया
कमाल के ख्याल,,,
अनुप्रास, उपमा आदि अलंकारों से सज्जित दोनों गज़लें अनिभूतियों के गुप्त चित्र को अभिव्यक्त कर निराकार में साकार की प्रतीति कराती हैं. दोनों गज़लें रुचीं
lajvab gazalon ke liye ushaji ko bdhai apka dhanyvad
Wah Usha ji ki Ye dono hi gazalen bahut achhi lagi
bahut bahut shukriya Mahavir sir
inhe padhwane ke liye
khas kar ye sher bhaut pasand aaye
मेरे हाथों की गर्मी से कहीं मुरझा न जाए वो
इसी डर से मैं नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया
मुखोटा दर मुखोटा थी हँसी , बस इसलिए ही तो
छुपा था जो मुखोटे में नज़र ख़ंजर नहीं आया
ये ऐसा दौर है जिसमें कि झूट जीत गया
जो सच्चा था, वही हारा हुआ सा लगता है
bahut bahut badhayi itni sunder gazal kahne ke liye
USHA RAJE SAXENA HINDI KEE JITNEE
ACHCHHE KAHAANIKAAR HAIN UTNEE
HEE ACHCHHE KAVYITRI BHEE HAIN.
UNKEE GAZALON KEE CD BHEE NIKAL
CHUKEE HAI.UNKEE GAZALON KO GAAYAA
HAI BHARAT KEE LOKPRIY GAAYIKA
MITHLESH TIWARY NE.SAB KEE GAZALEN
WWW.RADIOSABRANG.COM PAR SUNEE JAA
SAKTI HAIN.CHUNKI MAIN RADIO SAB-
RANG SE JUDAA HUA HOON ISLIYEE
YAH SOOCHNAA DE RAHAA HOON.RADIO
SABRANG SUNIYE AUR ANYA RACH-
NAAON KE SAATH USHA RAJE KEE RACH-
NAAON KAA BHEE AANAND UTHAAEEYE.
DONO GAZALON KE LIYEE USHA JI KO BADHAAEE.AADARNIYAA MAHAVIR
SHARMAA JI KAA KAESE SHUKRIA ADAA
KARUN?VE UNKE BLOG PAR HAR RACHNA-
KAAR KAA SWAAGAT HAI.
मुखोटा दर मुखोटा थी हँसी , बस इसलिए ही तो
छुपा था जो मुखोटे में नज़र ख़ंजर नहीं आया
-बहुत आनन्द आ गया पढ़ कर. आभार इस प्रस्तुति का!!
दो और नायब ग़ज़लों को पढ़वाने का बहुत-बहुत शुक्रिया महावीर जी
bahut khoob..
'परिंदा याद का' और फिज़ा का रंग' दोनों ग़ज़लों में ताज़गी है । अंदाज़ में नयापन है । यह नयापन मुझे बहुत पसंद है । किसी का शेर है -
सिर्फ़ अंदाज़े-बयां रंग बदल देता है
वर्ना दुनिया में कोई बात नई बात नहीं
Usha ji
aapki gazalon se roobaroo hokar jaana ki aap apne bhavon ko bakhoobi shabdon ki bunawat se prastut karti hai jiska koi jawab nahin
सभी ने ओढ़ कर चादर उदासी की यही सोचा
शजर पर क्यों बहारों का नया मंज़र नहीं आया
Bahut khoob
Daad ke saath
Devi Nagrani
aadarniya mahaveer ji ,
namaskar
usha ji ki dono gazalon me wo taazgi hai jiski tareef nahi ki ja sakti hai .. bus unki lekhni ko salaam kiya jaa sakta hai ..
dusari gazal aaj ke daur ki sahi paribhasha hai
meri badhai sweekar karen
vijay
बहुत सुन्दर रचनायें हैं ..
आपकी रचनाओं को समर्पित :
परिन्दे को याद थी गुलो-गुलज़ार मुंडेरी
अन्धेरे में राही को घर नज़र नहीं आया ..
आदरणीय महावीर जी,
बहुत सुखद एहसास हुआ मेरे ब्लाग पर आपके आने और टिप्पणि देने से। और इसी बहाने आपके इस सुंदर ब्लाग से परिचय भी हो गया। मैं तो सीखने की प्रक्रिया में हूं, आपका स्नेह मुझे संबल देगा।
आदरणीया उषा राजे सक्सेना जी,
इन नायाब ग़ज़लों के लिए मैं दिल से शुक्र अदा करता हूं।
साथ ही सभी टिप्पणिकारों का आभारी हूं जिन्होंने अपना
क़ीमती वक़्त देकर हौसला-अफ़जाई की है।
मेरे हाथों की गर्मी से कहीं मुरझा न जाए वो
इसी डर से मैं नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया
वाह महावीर जी वाह ! बहुत ही उम्दा ग़ज़ले। उषा जी को मेरी बधाई! दूसरी ग़ज़ल में मुझे वर्तनी की कुछ अशुद्धियाँ लगीं, अगर मेरा अंदाज़ा ग़लत हो तो इन अशुद्धियों को सुधारा जा सकता है। दोनों ग़ज़लें कमाल की हैं। समुन्दर पार भी कितना बढ़िया साहित्य लिखा जा रहा है इससे ये अंदाज़ हो जाता है।
प्रकाश जी
पहले तो टिप्पणी के लिए आपका धन्यवाद करता हूं। इसके साथ आप और भी धन्यवाद के पात्र होजाते हैं कि वर्तनी की ग़लतियों से आगाह करवाया जिनका टाईप करते हुए ध्यान रखना चाहिए था।
उर्दू की ग़ज़ल को हिंदी लिपि में लिखते हुए ऐसी ग़लतियां हो ही जाती हैं, लेकिन इस प्रकार सुधार के सुझावों से बहुत अच्छा लगता है।
आप ठीक कहते है कि उर्दू भाषा को मद्देनज़र रखते पहली ग़लती थी 'फिजां'। मैं जानता हूं कि आप
हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं का ज्ञान है इसी लिए आपको यह शब्द खटकता हुआ सा लगा होगा, और खटकना चाहिए भी। मैं आपसे सहमत हूं कि यह उर्दू की ग़ज़ल है तो उर्दू के उच्चारण का भी ध्यान रखना चाहिए। यह उर्दू का शब्द है तो उसी प्रकार से ठीक
कर दिया है ,हालांकि कुछ लोग हिंदी में इसे 'फ़िजां' या 'फिज़ां' या 'फ़िज़ा' लिखते हैं लेकिन उर्दू में यह शब्द 'फ़ज़ाँ' या फ़ज़ां होता है - क्योंकि 'फ़' पर 'ज़बर' होती है, न कि 'ज़ेर' (लुग़ात के अनुसार)।
दूसरा, 'शख्श' - अब 'शख़्स' कर दिया है। तीसरा, 'झूट' ऐसा ही रख रहा हूं, जब शुरू से ही उर्दू उच्चारण का प्रयोग कर रहे हैं तो इसे 'झूट' रखना ठीक होगा क्योंकि उर्दू में 'झूठ' शब्द नहीं होता। इसी प्रकार 'हरेक', 'धुंध' शब्द भी वाद-विवाद में पड़ जाते हैं। जैसे हिंदी में 'धुंध' और उर्दू में धुंद' है।
अब हम हिंदी में लिखते हैं तो कहीं न कहीं तो समझौता करना ही पड़ता है।
सादर
महावीर
उषा जी दा जवाब नहीं।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
महावीर जी,
अपनी व्यस्तताओं के चलते आज ही आपका ब्लाग देख पाई हूँ.
क्या ग़ज़लें पढ़वाईं हैं. उषा जी और आप दोनों को बधाई.
मेरे हाथों की गर्मी से कहीं मुरझा न जाए वो
इसी डर से मैं नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया
और
चुभे हैं दिल में तेरे ऐ 'उषा' कुछ दर्द के कांटे
है अचरज क्यों उभर कर आह का एक स्वर नहीं आया
जितनी भी तारीफ करूँ कम है.
वाह क्या बात है..
Usha ji, Namaskar,
Aapki Dono Ghazal piyari hai.
Shubh Kamnaoon Sahit...
Dr. Shareef
Karachi (Pakistan)
gms_checkmate@yahoo.com
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