Monday 17 August 2009

एक ग़ज़ल, एक कविता - महावीर शर्मा



जब वतन छोड़ा……

जब वतन छोड़ा, सभी अपने पराए हो गए
आंधी कुछ ऐसी चली नक़्शे क़दम भी खो गए


खो गई वो सौंधी सौंधी देश की मिट्टी कहां ?
वो शबे-महताब दरिया के किनारे खो गए


बचपना भी याद है जब माँ सुलाती प्यार से
आज सपनों में उसी की गोद में हम सो गए


दोस्त लड़ते जब कभी तो फिर मनाते प्यार से
आज क्यूं उन के बिना ये चश्म पुरनम हो गए!


किस क़दर तारीक है अपना जहाँ उन के बिना
दर्द फ़ुरक़त का लिए हम दिल ही दिल में रो गए


था मेरा प्यारा घरौंदा, ताज से कुछ कम नहीं
गिरती दीवारों में यादों के ख़ज़ाने खो गए


हर तरफ़ ही शोर है, ये महफ़िले-शेरो-सुख़न
अजनबी इस भीड़ में फिर भी अकेले हो गए
महावीर शर्मा

*****************

अतीत

याद किसी की गीत बन गई!
कितना अलबेला सा लगता था, मुझे तुम्‍हारा हर सपना,
साकार बनाने से पहले , क्यों फेरा प्रयेसी मुख अपना,
तुम थी कितनी दूर और मैं, नगरी के उस पार खड़ा था,
अरुण कपोलों पर काली सी, दो अलकों का जाल पड़ा था,
अब तुम ही अनचाहे मन से अंतर का संगीत बन गई।
याद किसी की गीत बन गई!

उस दिन हँसता चांद और तुम झांक रही छत से मदमाती
आंख मिचौली सी करती थीं लट संभालती नयन घुमाती
कसे हुए अंगों में झीने पट का बंधन भार हो उठा
और तुम्‍हारी पायल से मुखरित मेरा संसार हो उठा
सचमुच वह चितवन तो मेरे अंतर्तम का मीत बन गई।
याद किसी की गीत बन गई!

तुम ने जो कुछ दिया आज वह मेरा पंथ प्रवाह बना है
आज थके नयनों में पिघला आंसू मन की दाह बना है
अब न शलभ की पुलक प्रतीक्षा और न जलने की अभिलाषा
सांसों के बोझिल बंधन में बंधी अधूरी सी परिभाषा
लेकिन यह तारों की तड़पन धड़कन की चिर प्रीत बन गई।
याद किसी की गीत बन गई!

महावीर शर्मा

प्राण शर्मा और
आचार्य संजीव 'सलिल'
की लघुकथाएं.
नीचे लिंक पर क्लिक कीजिए :

मंथन

अगला अंक: २४ अगस्त २००९
डॉ. अहमद अली बर्क़ी आज़मी की प्रदूषण पर रचनाएँ

28 comments:

रज़िया "राज़" said...

था मेरा प्यारा घरौंदा, ताज से कुछ कम नहीं
गिरती दीवारों में यादों के ख़ज़ाने खो गए
दिल को छू लेनेवाली रचना।

रज़िया "राज़" said...

था मेरा प्यारा घरौंदा, ताज से कुछ कम नहीं
गिरती दीवारों में यादों के ख़ज़ाने खो गए
दिल को छू लेनेवाली रचना।

PRAN SHARMA said...

EK PURANEE UKTI HAI KI ROTI JIDHAR
SE BHEE CHAKHEE UDHAR SE HEE MEETHEE LAGEE HAI.YE UKTI SHRI
MAHAVIR JEE KEE RACHNAAON PAR BHEE
LAAGU HOTEE HAI.DONO RACHNAAON KO
PAHKAR BADAA AANAND AAYAA HAI MUJHE.BHAVABHIVYAKTI ATI SARAS HAI.
BAHUT-BAHUT BADHAAEE.

बलराम अग्रवाल said...

DIL KO CHHOO LENE VALI RACHANAEN. DESH SE BAHAR DESH KI GANDH SE JURNA, USE MAHASOOSNA ADHIK MAHATVPURN HOTA HAI.

Divya Narmada said...

महावीर शर्मा जी की दोनों रचनाओं ने बड़ी उलझन में डाल दिया है. समझ नहीं आता किसे किससे बेहतर कहूँ. दोनों ही रचनाएँ एक से बढ़कर एक हैं. भाषा शैली, शब्द-चयन, भावाभिव्यक्ति, बिम्ब, प्रतीक, अलंकार, युग बोध, सामयिकता आदि किसी भी निकष पर परखें रचनाएँ खरी हैं. एक निवेदन हंस = पक्षी, हँस = हँसने की क्रिया, जहाँ सिर्फ बिंदी हो वहाँ आधा 'म' या आधा 'न' का उच्चारण होता है. इस क्षेत्र में 'आँख मिचौली' शब्द का प्रयोग होता है, 'आँख मिचौनी' नहीं.

निर्मला कपिला said...

ek se badh kar ek rachana hai aaj 5 din baad computer thheek hua is liye kuchh rachanayen padh na saki abhi hindi bhi nahin likh sakati 2-3 din me sab sahi ho jayega tab tak xama chahati hoon aabhaar

महावीर said...

आदरणीय आचार्य 'सलिल' जी
मेरी त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाने और उन्हें सुधारने के
लिए मैं आपका आभारी हूँ. दोनों शब्द अब ठीक कर दिए
गए हैं.
टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद.

रूपसिंह चन्देल said...

शर्मा जी,

गज़ल और गीत ने मन मुग्ध कर दिया. गज़ल की जितनी ही प्रशंसा की जाय कम है. विदेश में अपने देश, अपने लोगों और अपने शहर-गांव-कस्बे को याद करना स्वाभाविक है. मैं इस दर्द को समझ सकता हूं.

चन्देल

Randhir Singh Suman said...

v.good

Dr. Ghulam Murtaza Shareef said...

महावीर जी, सादर प्रणाम,
घायल की गति घायल जाने, की जिन घायल होय I
जौहरी की गति जौहरी जाने, की जिन जौहर होय इ

हम प्रवासी की गति हम ही जान सकते हैं I पुरानी यादें ताज़ा कर दी आपने I

आपका भाई,
डॉ. शरीफ
कराची

दिगम्बर नासवा said...

aapne to pravaasiyon ke man ko bhiga diya hai..... ghar ki taad karaa di hai, bachpan ki puraani yaadon me dhakel diya hai......
lajawaab...... simply great...

Ahmad Ali Barqi Azmi said...

जनाब महावीर शर्मा साहब
आदाब
हर एक शेर से ज़ाहिर है इसके सोज़-ए-दुरूँ
वतन से दूरी का एहसास इस ग़ज़ल मेँ है
अहमद अली बर्क़ी आज़मी

ashok andrey said...

priya bhai mahaveer jee aapki gajal ne to jhakjhor diya hai vakei jab vatan se door koii chalaa jata hai tab puranii sondhi havaen usko ussi kii yadon mein dhakel detii hain, tabhii to-
"dost ladte jab kabhii to phir manaate pyaar se
aaj kayun unn ke binaa ye chashm purnam ho gaye"
aapki dusrii kavita ne bhii man ko gehre chhua hai
bahut khoob badhai sveekaren,
ashok andrey

पंकज सुबीर said...

पहले तो ग़ज़ल पढ़ी और उसमें से कोई शेर छांट ही रहा था जो सबसे पसंदीदा हो । लेकिन तभी गीत पर नज़र पड़ी और ग़ज़ल को भूल ही गया । अरुण कपोलों परन काली सी दो अलकों का जाल पड़ा था आहा मजा ही आ गया । दादा भाई सच कहूं बुरा न मानें इस गीत के आगे तो आपकी स्‍वयं की ही ग़ज़ल फीकी हो गई । आपने दूसरे छंद में जो शब्‍द चित्र खींचा है हंसते चांद और छत से झांकती प्रियतमा के लिये जो मदमाती शब्‍द का उपयोग किया है वो नशा सा कर गया । अनुज हूं इसलिये अग्रज की लिखी कसे हुए अंगों वाली सुवासित पंक्तियों की चर्चा नहीं कर सकता । किन्‍तु अपने गुरू नारायण कासट जी को आपकी ये पंक्ति ज़रूर सुनाऊंगा । तीसरा छंद उफ कितनी घनीभूत पीड़ा है उसमें । अब न शलभ की पुलक प्रतीक्षा में पुलक शब्‍द का उपयोग किस खूबी से किया गया है ये हिंदी का विद्वान ही कर सकता है । पुलक प्रतीक्षा उफ प्रतीक्षा का सौंदय्र कई कई गुना बढ़ा दिया है इस एक पुलक ने । आपकी लेखनी का प्रणाम और आपके इस गीत का प्रणाम जिसके आगे मैं आपकी ही ग़ज़ल को विस्‍मृत कर गया । गीत सहेज कर रख रहा हूं । उस दिन हंसता चांद और तुम झांक रहीं छत से मदमाती । इस पंक्ति पर ब्‍लाग जगत की पूरी कविताएं निसार न्‍यौछावर । ये एक पंक्ति अपने आप में पूरी कविता है । नमन नमन नमन

नीरज गोस्वामी said...

सचमुच वह चितवन तो मेरे अंतर्तम का मीत बन गई
अहहः...महावीर जी जय हो....आपने जिस चितवन की तस्वीर खींची है वो चितवन अगर किसी के अंतर्तम का मीत न बनी तो वो पाषाण ही होगा...अप्रतिम रचना है ये आपकी...आनंद के सागर में गोते लगवा दिए आपने...वाह.
ग़ज़ल भी लाजवाब है. आप एक बार में अपनी एक रचना ही पढ़वाया करें...इतनी ख़ुशी एक साथ बर्दाश्त करना मुश्किल होता है...समझ ही नहीं आता किस को कितना कब तक पढूं..???
नीरज

Dr. Sudha Om Dhingra said...

महावीर जी की ग़ज़ल और गीत पढ़ा. सचमुच गीत पढ़ने के बाद ग़ज़ल भूल गई.
बहुत खूब -बधाई!

dnangrani said...

था मेरा प्यारा घरौंदा, ताज से कुछ कम नहीं
गिरती दीवारों में यादों के ख़ज़ाने खो गए
Waaaaaaaaaaaah!
Umeed ki duniya mein jignu jhilmilauthe hain mahavirji

Devi nangrani

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आदरणीय महावीर जी ,
ग़ज़ल और गीत ने ऐसा समा बांधा है के मन में आनंद घनीभूत हो रहा है ...
आप सभी का लिखा
अपने जाल घर पर पढ़वाते रहते हैं ,
कृपया , आपकी
ऐसी भावपूर्ण रचनाओं को भी पढवाया करें ...
बहुत खुशी होगी ...:)
सादर, स स्नेह,
- लावण्या

गौतम राजऋषि said...

आह! निःशब्द हूँ...वैसे भी गुरूजनों के इतना सब कह लेने के बाद मुझ अदने का कुछ कहना उचित नहीं। लेकिन नीरज जी की बात को दोहराना चाहूँगा कि एक बार में एक ही रचना पढ़वाये अपनी कि हम खुल कर रसास्वादन कर सकें...

विधुल्लता said...

खो गई वो सौंधी सौंधी देश की मिट्टी कहां ?
वो शबे-महताब दरिया के किनारे खो gaye
achchi panktiyan

daanish said...

bahut hi umdaa , aur nayaab rachnaaeiN padhne ko mileeN haiN..
abhi bhi asaraat ka aseer hooN...
usi kaifiyat meiN mubtelaa hooN .
mubarakbaad
aur abhivaadan .
---MUFLIS---

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

जब वतन छोड़ा, सभी अपने पराए हो गए
आंधी कुछ ऐसी चली नक़्शे क़दम भी खो गए

वाह क्या बात है महावीर जी। तारीफ़ करना भी छोट मुँह बड़ी बात लगती है। गीत भी अत्यंत सुंदर।

अमिताभ श्रीवास्तव said...

bahut dino baad aapke blog par aayaa...kintu in dino ka registaani Aakaash aapki gazal aour geet se bhar gayaa..kise behatar kahu? dono hi bhavnao se paripurna aour dil ko chhuti huee si rachna he/ fir me to adna sa vyakti hu jo kisi rachna ki samajh gambhirta se nahi rakhta, bas achhi lagti he to kah deta hu..isliye..bas yahi kahunga ki aapse seekhne ko bahut milta he//

हरकीरत ' हीर' said...

था मेरा प्यारा घरौंदा, ताज से कुछ कम नहीं
गिरती दीवारों में यादों के ख़ज़ाने खो गए

वाह......!!

हर तरफ़ ही शोर है, ये महफ़िले-शेरो-सुख़न
अजनबी इस भीड़ में फिर भी अकेले हो गए

महावीर जीयूँ तो हर शे'र ही लाजवाब है किसकी तारीफ करूँ और किसकी नहीं.......जिसकी नहीं की ये मत समझियेगा वो कहीं कमजोर था .......!!

और आचार्य सलिल जी ने जो ध्यान दिलाया उसके लिए उन्हें मेरा भी शुक्रिया क्योंकि ऐसी गलतियां अक्सर मैं भी कर देती हूँ ....!!

रंजना said...

एक रंग ह्रदय में उतर नयनो को पिघला जाता है तो एक रंग कोमलता से ह्रदय में उतर मन को श्रृंगार रस में सिक्त कर विभोर कर देता है.....दोनों रंगों,दोनों रचनाओं में किसे श्रेष्ठ कहूँ?????

दोनों ही रचनाओं ने मुग्ध विभोर कर दिया.....वाह !!! अप्रतिम !! अतिसुन्दर !! मन आनद सागर में गोते लगा रहा है...बहुत बहुत आभार आपका...

योगेन्द्र मौदगिल said...

दोनमं ही रचनाएं बेहतरीन.... साधुवाद

महावीर said...

आप सभी पाठकों और टिप्पणीकारों का हार्दिक धन्यवाद.

neera said...

क्या खूब लिखा है....

था मेरा प्यारा घरौंदा, ताज से कुछ कम नहीं
गिरती दीवारों में यादों के ख़ज़ाने खो गए