Friday 23 July 2010

भारत से द्विजेन्द्र "द्विज" की दो ग़ज़लें


ग़ज़ल
द्विजेन्द्र "द्विज"


जिधर कहीं भी है ख़्वाबों का कारवाँ निकला
क़दम-क़दम पे उधर एक इम्तिहाँ निकला

उलझते क्यों न वहाँ हमसफ़र सब आपस में
जहाँ भी रहनुमा रहजन का हमज़बाँ निकला

जुनूँ में आग लगा कर तो भाग ली वहशत
जब आई होश तो अपना ही वो मकाँ निकला

परिन्द अम्न के जाकर कहाँ बसर करते
हर एक शाख़ पे ही ख़ौफ़ मेज़बाँ निकला

वो जिसकी बात में जादू बला का रहता था
बयाँ के वक़्त वही शख़्स बेज़ुबाँ निकला

******************
ग़ज़ल
द्विजेन्द्र "द्विज"


जबकि नारों में यहाँ हैं लाख उजियारे हुए
क्यों अँधेरे ही मगर फिर आँख के तारे हुए

ज़ात,मज़हब,रंग,नस्लें और फ़िरक़े हो गया
आदमी था एक जिसके लाख बँटवारे हुए

लफ़्ज़, जिनका था हमारी ज़िंदगी से वास्ता
आपके होंठों पर आकर खोखले नारे हुए

थाम कर सच्चाई के तिनके हैं बैठीं झुग्गियाँ
झूठ की ईंटों से ऊँचे कितने चौबारे हुए

आप अंगारों को फूलों में बदल सकते नहीं
क्या करेंगे आप फिर जब फूल अंगारे हुए

आजकल अपने घरों में भी नहीं महफ़ूज़ हम
साज़िशें चौखट , दरो-दीवार हत्यारे हुए

सीख लेते हैं सलीबों पर लटकना ख़ुद-ब-ख़ुद
हों जहाँ भी लोग इतने ख़ौफ़ के मारे हुए

ज़िन्दगी जीना सिखाते हैं हमें जाँबाज़ वो
जो नहीं ख़ुद के मुख़ालिफ़ जंग में हारे हुए

यूँ नज़र आता 'द्विज' इनमें सुर न कोई ताल था
हाथ में आई कलम, जब लफ़्ज़ बंजारे हुए

**********************

24 comments:

Subhash Rai said...

द्विजेन्द्र जी की गज़लों में आज का समय अपनी पूरी तल्खी के साथ मौजूद है। गज़ल जैसी विधा में चूंकि विस्तार की गुंजाइश नहीं होती है, इसलिये नंगे सच को दो पंक्तियों के शेर में कहना, और सटीक तरीके से कहना मुश्किल काम होता है, पर द्विजेन्द्र जी ने उसे उठाया भी है और उसका निर्वाह भी किया है। शुभकामनायें।

daanish said...

"द्विज" जी की ग़ज़लों में
आधुनिकता का समावेश
और नयेपन का उचित निर्वहन
हर प्रकार से मुखुर रहता है ....
उन्हें,
ग़ज़ल में कहन की उपयोगिता
और शिल्प की ज़रुरत का एहसास हमेशा रहता है
उनके ये शेर....
"जुनूँ में आग लगा कर तो भाग ली वहशत
जब आई होश तो अपना ही वो मकाँ निकला"

"थाम कर सच्चाई के तिनके हैं बैठीं झुग्गियाँ
झूठ की ईंटों से ऊँचे कितने चौबारे हुए"

हर पढने वाले को आंदोलित करने में सक्षम हैं

आदरणीय महावीर जी का
ऐसी नायाब गज़लें हम सब तक
पहुंचाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया .

देवमणि पाण्डेय said...

"द्विज" जी की ग़ज़लों में वक़्त की आवाज़, अंदाज़े-बयाँ और लफ़्ज़ों को बरतने का सलीक़ा बहुत ख़ूबसूरत है-

जुनूँ में आग लगा कर तो भाग ली वहशत
जब आई होश तो अपना ही वो मकाँ निकला

ज़ात,मज़हब,रंग,नस्लें और फ़िरक़े हो गया
आदमी था एक जिसके लाख बँटवारे हुए

ऐसी असरदार गज़लें हम सब तक पहुंचाने के लिए महावीर जी का बहुत बहुत शुक्रिया।

देवमणि पाण्डेय, मुम्बई

PRAN SHARMA said...

SEEDHEE-SAADEE BHASHA MEIN GAZAL
KAHNAA HUNAR KEE BAAT HAI AUR YE
HUNAR DWIJ JEE KHOOB JAANTE HAIN.
UNKAA HAR SHER DIL - O - DIMAAG
KO CHHOO GAYAA HAI.ACHCHHEE GAZALON
KE LIYE UNHEN MUBAARAK.

सुनील गज्जाणी said...

1
जुनूँ में आग लगा कर तो भाग ली वहशत
जब आई होश तो अपना ही वो मकाँ निकला
2
थाम कर सच्चाई के तिनके हैं बैठीं झुग्गियाँ
झूठ की ईंटों से ऊँचे कितने चौबारे हु
दिव्जेंद्र जी नमस्कार ! मेरी पसन्डी के दो शेर आप कि नज़र ,
गज़लें आज के हालत को नज़र करती है . जाने आदमी किस गुमा में जिए जा रहा है .
सुंदर ग़ज़लों के लिए साधुवाद
आदर जोग महावीर जी को प्रणाम !
आभार

संजीव गौतम said...

जुनूँ में आग लगा कर तो भाग ली वहशत
जब आई होश तो अपना ही वो मकाँ निकला

परिन्द अम्न के जाकर कहाँ बसर करते
हर एक शाख़ पे ही ख़ौफ़ मेज़बाँ निकला

ज़ात,मज़हब,रंग,नस्लें और फ़िरक़े हो गया
आदमी था एक जिसके लाख बँटवारे हुए

बात को किस तरह कहा जाय कि वो दवा की तरह तुरन्त असर करे यह देखना हो तो इन ग़ज़लों में देखा जा सकता है. ग़ज़लपन या यूं कहें कि अर्थ के विस्फोट से भरपूर हैं दोनों ग़ज़लें। द्विज जी को पढ़वाने के लिए दादा महावीर जी का बहुत-बहुत धन्यवाद

गौतम राजऋषि said...

अहा, अपने प्रिय शायर द्विज साब की ग़ज़लों के दर्शन बड़े दिनों बाद हो रहे हैं। अपने समकालीन दौर के तमाम शायरों में द्विज साब अपना अलग ही स्थान रखते हैं। दोनों ही ग़ज़लें उनकी कलम की तपिश को और-और उभार रही हैं। इस शेर पे तो जितनी दाद दूँ कम होगी:-
"वो जिसकी बात में जादू बला का रहता था
बयाँ के वक़्त वही शख़्स बेज़ुबाँ निकला"

दूसरी ग़ज़ल का ये शेर हासिले-ग़ज़ल शेर है " लफ़्ज़, जिनका था हमारी ज़िंदगी से वास्ता
आपके होंठों पर आकर खोखले नारे हुए"
और मक्ता तो उफ़्फ़्फ़...ल्फ़्ज़ों के बंजारे होने का बिम्ब मन मोह गया।
शुक्रिया महावीर जी द्विज साब की इन ग़ज़लों को साझा करने के लिये। कैसे हैं आप?

दिगम्बर नासवा said...

द्विज जी की दोनो ग़ज़लें कमाल की हैं .... गुज़रते हुवे वक़्त की नब्ज़ बाखूबो समझते हैं वो और उसको अपनी ग़ज़लों में सजाते हैं ... हर शेर कमाल है ....

तिलक राज कपूर said...

ग़ज़ल तो द्विजेन्‍द्र भाई की रगों में बसी है फिर उम्‍दा अशआर बाहर आने से कैसे रुक सकते हैं। यूँ तो अश्‍आर की भी तुलना नहीं करना चाहिये लेकिन तुलनात्‍मक रूप से दूसरी ग़ज़ल बहुत अच्‍छी लगी।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

द्विजेन्द्र द्विज जी को पढ़ना एक विशेष अनुभूति से साक्षात् करना होता है ।
उस्तादाना कलाम !
बह्रों की पाबंद अदायगी !
सादगी के साथ पैनापन कैसे पेश किया जाता है ,
द्विजजी को पढ़ कर ख़ुद ब ख़ूद जाना जा सकता है ।

प्रस्तुत दोनों ग़ज़लों का एक एक शे'र हासिले-ग़ज़ल शे'र कहा जा सकता है ।

परिन्दे अम्न के जाकर कहां बसर करते
हर एक शाख़ पे ही ख़ौफ़ मेज़बां निकला


क्या ख़ूब कहा साहब !

उलझते क्यों न वहां हमसफ़र सब आपस में
जहां भी रहनुमा रहजन का हमज़बां निकला



लफ़्ज़, जिनका था हमारी ज़िंदगी से वास्ता
आपके होंठों पर आकर खोखले नारे हुए


किस मर्म को छू लिया द्विज साहब !

ज़ात,मज़हब,रंग,नस्लें और फ़िरक़े हो गया
आदमी था एक जिसके लाख बंटवारे हुए


आदरणीय महावीरजी को नमन !
साधुवाद !
आदरणीय द्विजजी की ग़ज़लें पढ़ने का अवसर उपलब्ध कराने के लिए …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

Chaman Lal 'Chaman' (E mail) said...

Dear Mahavir Ji
Thanks for sending creations of various writers and poets. I have enjoyed reading many of these.

Please allow me to comment on two Ghazals by Dwijendra Dwij of India. While I have much enjoyed reading his ghazals, I am tempted to point out use of two words in both ghazals, i.e. one word in each Ghazal:
In the third Shir of first Ghazal, JAB AAYI HOSH........... I think HOSH is masculine not feminine gender. Its a Farsi word. Similarly Dwijendra has used QALAM as feminine gender in the last SHAIRE of his second ghazal.That is also is not correct.
Having said this, I take this opportunity to congratulate Dwijendra Ji on writing these beautiful Ghazals. Kind regards.
Chaman Lal Chaman

Alpana Verma said...

वो जिसकी बात में जादू बला का रहता था
बयाँ के वक़्त वही शख़्स बेज़ुबाँ निकला
--
आजकल अपने घरों में भी नहीं महफ़ूज़ हम
साज़िशें चौखट , दरो-दीवार हत्यारे हुए
बहुत खूब!
द्विज जी दोनों ही गज़लें बेहद उम्दा हैं.
आभार.

Udan Tashtari said...

द्विज साहब को पढ़ना हमेशा सुखद रहता है. दोनों ही गज़लें बहुत उम्दा..आभार प्रस्तुत करने का.

Navneet Sharma said...

आदरणीय अग्रज द्विजेंद्र दिद्व जी की खूबसूरत ग़ज़लों के लिए आदरणीय महावीर जी एवं प्राण शर्मा जी का आभार। मुझे ये शे'र खस तौर पर अच्‍छे लगे :


ज़ात,मज़हब,रंग,नस्लें और फ़िरक़े हो गया
आदमी था एक जिसके लाख बँटवारे हुए

लफ़्ज़, जिनका था हमारी ज़िंदगी से वास्ता
आपके होंठों पर आकर खोखले नारे हुए

थाम कर सच्चाई के तिनके हैं बैठीं झुग्गियाँ
झूठ की ईंटों से ऊँचे कितने चौबारे हुए
सादर
नवनीत

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

द्विज जी का कलाम अपना जादू बिखेर रहा है
जुनूँ में आग लगा कर तो भाग ली वहशत
जब आई होश तो अपना ही वो मकाँ निकला
काश ये बात हम सब समझ लें....

वो जिसकी बात में जादू बला का रहता था
बयाँ के वक़्त वही शख़्स बेज़ुबाँ निकला
ये हमारे समाज के लिए शुभ संकेत भी नहीं..
ज़िम्मेदार लोगों को बोलना ही होगा...
और...
ज़ात,मज़हब,रंग,नस्लें और फ़िरक़े हो गया
आदमी था एक जिसके लाख बँटवारे हुए
बहुत दिनों बाद एक बेशक़ीमती शेर से रूबरू होने का मौका मिला.

Devi Nangrani said...

थाम कर सच्चाई के तिनके हैं बैठीं झुग्गियाँ
झूठ की ईंटों से ऊँचे कितने चौबारे हुए

Nageenedari bemisal. Har sher ek bayaan karta hua bimb pesh kar raha hai.
Kalm ki zubaan mein apne aaspaas ke sarokaron ko pesh karti hui aapki ghazals bahut hi achi lagi. mubarak!

नीरज गोस्वामी said...

द्विज जी की ग़ज़लों को पढने के बाद हमेशा एक ही दुविधा रहती है...उनका कौनसा शेर कोट किया जाए?????...जिस ग़ज़ल के सारे शेर एक से बढ़ कर एक हों उनमें से किसी एक को अलग से छांटने का मतलब है दूसरे शेरों के साथ ना-इंसाफी करना...दोनों ग़ज़लें बेपनाह खूबसूरत है और दूसरी वाली तो कसम से मेरे साथ ही चली आई है...अशआरों ने दिमाग में ऐसा घर कर लिया है के जाने का नाम ही नहीं ले रहे...द्विज जी जैसे ग़ज़लगो हमारे दौर की पहचान हैं...इश्वर उन्हें खूब खुश रखे, दुआ करता हूँ के उनकी कलम से ऐसे धारधार अशआर लगातार झरते रहें...
ऐसी नायाब ग़ज़लों को हम तक पहुँचाने के लिए आपको प्रणाम.

नीरज

Rajeev Bharol said...

बहुत ही अच्छी गज़लें. जैसा नीरज जी ने कहा, द्विज जी की ग़ज़लों के किसी एक शेर तो अच्छा कहना बाकी अशआर के साथ ज्यादती होगी. सभी शेर लाजवाब हैं.

द्विज जी, महावीर जी,
इतनी अच्छी गज़लों के लिए हार्दिक धन्यवाद.

haidabadi said...

महावीर जी और प्राण जी
आपके ब्लॉग पर हिमाचल के मारुफ़ शायर "द्विज" का कलाम पढ़ा
तबियत ख़ुश हो गई ग़ज़लों में सब से बड़ी ख़ूबी यह है कि शायर
ने सादा सहज और आसान ज़ुबान में अपने दिल की बातें कहीं हैं

तूने "सागर" की विरासत को जो पाया है
तेरे एहसास में इल्फाज़ में गहराई है

चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क

ashok andrey said...

bahut achchhi gajlen padne ko mili jiske liye mai aapka tatha Dwijendr jee ka aabhar vyakt kartaa hopon

रचना दीक्षित said...

ये लाजवाब गज़लें पढवाने के लिए आभार

"अर्श" said...

आज तो जैसे सावन की रिमझिम बारिश हो रही है ... द्विज जी की ग़ज़लों से महावीर ब्लॉग पर .... आदरणीय द्विज जी की गज़ल्गोई के बारे में कहना छोटी मुह बड़ी बात होगी... छोटी छोटी बातों को कैसे ग़ज़लों में पिरोई जाती है इनकी गज़लें पढ़ समझ आती है ... आदरणीय महावीर जी को उनके बेहतर स्वस्थ्य के लिए दुआएं...

अर्श

रंजना said...

सभी के सभी शेर ऐसे की राह रोक लें ,बाँध लें अपने साथ....
बेहतरीन गज़लें....वाह !!!

गीता पंडित said...

द्विज जी की ग़ज़लें हमेशा ही मन सुखन रही हैं.....
बहुत उम्दा.....


महावीर जी ! आपका बहुत बहुत आभार इतना सुंदर पढवाने के लियें.....नमस्कार आप कैसे हैं.....?

दीपावली की ढेर सारी बधाईयाँ....


गीता पंडित