Tuesday 29 September 2009

पंकज सुबीर की कविता - भेड़िया

भेड़िया
(ये कविता जार्ज बुश को राजघाट पर देख कर उपजी है)
पंकज सुबीर


सुजलाम, सुफलाम और शायद मलयज शीतलाम भी .....
भेड़िया खड़ा था वहां,
भेड़िया.......
दांतों में उलझी हुईं थीं
अंतड़ियां अभी तक
और लोथड़े भी,
आंखों में लाल हिंस्र चमक,
अंदर आते समय
टपक रहा था
गर्म खून भी
दांतों से...
न जाने किसके इशारे पर
जिसे पोंछ लिये था उसने
तीन रंगों वाली पेपर नेपकिन से ।
उतरा था जब,

तब
सने हुए थे पैर भी
लाल कीचड़ में,
गहरे लाल रंग की
और गंधाती हुई कीचड़ में ।
उतरने के बाद
पोंछते हुए आया था पैर
यहां तक ।
सब कुछ तो बिछा था
लाल कालीन की तरह
लाल कालीन...
जिनका उपयोग
किया जाता है अंक्सर
पैर पोंछने के लिये ही,
लाल रंग से सने पैरों
को पोंछने के लिये
और अंक्सर सारे बड़े पैर
सने होते हैं
लाल रंग में
गहरे कत्थई रंग की झांई वाले
लाल रंग में
इसीलिये उनके नीचे
बिछा दिये जाते हैं
कालीन लाल।
चारों तरंफ जो कुछ भी था
तीन रंग का
वो सब कुछ बिछा दिया गया था
लाल कालीन बनाकर,
और उसी पर चलता हुआ आया था
यहां तक भेड़िया,
चलता हुआ.....?
या शायद रौंदता हुआ,
गर्व से रौंदता हुआ,
सो रही थी अहिंसा
मौन, नि:शब्द,
एक मुट्ठी फूल उछाल कर
कहा उसने
'सोए रहो चुपचाप,
यहीं इसी प्रकार
सोए रहो चुपचाप।'
कुछ देर रुक कर
लौट गया था भेड़िया,
ज्‍यादा देर तक रुक भी नहीं सकता था,
बहुत जल्दी जल्दी लगा करती है
आदमखोर भेड़ियों को
खून की प्यास,
लौट गया था जल्दी ही इसीलिये।
उसी दिन से
गंध मेहसूस की जाती है
बारूद की
राजघांट की हवाओं में,
आपने मेहसूस की क्या.......?


पंकज सुबीर

आगामी अंक:
सोमवार अक्टूबर २००९
यू.के. से सोहन "राही" की दो ग़ज़लें


प्राण शर्मा
की लघुकथा
"शुभचिंतक"
बुद्धवार, ३० सितंबर २००९
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मंथन

19 comments:

रंजना said...

वाह ! वाह ! वाह ! क्या बात कही...एकदम ही सटीक ...

यथार्थ का क्रूरतम अतिविद्रूप स्वरुप सार्थकता से दिखाती अतिसुन्दर इस कविता के लिए आपका बहुत बहुत आभार...

रश्मि प्रभा... said...

waah pankaj ji ki kavita bahut hi achhi hai......satya kee bangi hai

Shardula said...

"सोए रहो चुपचाप,
यहीं इसी प्रकार
सोए रहो चुपचाप।"
... सुबीर जी, बहुत सशक्त और विचारोतेजक कविता है!
----
आदरणीय महावीर जी का आभार इसको हम सबके साथ बांटने के लिए.
सादर

Udan Tashtari said...

बहुत गहरी बात कह गये गुरु जी.

एक ऐसा यथार्थ जिसे महसूस तो सब करते हैं पर उसको शब्द चित्र में काढ़ना विरलों को ही आता है.

शब्दों की ताकत ऐसी कि वाकई बारुदी गंध से नथूने भर गये.

कैसे सोया होगा बापू अब तक वहाँ?

एक बेहतरीन रचना!! बधाई.

Murari Pareek said...

behtrin tagdaa shabd jaal bhediye hi bhediye vicharte hain aaj !!

निर्मला कपिला said...

सो रही थी अहिंसा
मौन, नि:शब्द,
एक मुट्ठी फूल उछाल कर
कहा उसने
'सोए रहो चुपचाप,
यहीं इसी प्रकार
सोए रहो चुपचाप।'
शायद उस समय बापू की आत्मा भी ये सब देख कर यही सोच रही होगी इतनी सत्य बात कहने के लिये बहुत साहस और अन्त;दृष्टी की जरूरत होती है और इस बडी बात को शायद इतने सश्क्त शब्दों मे अय्र कोई नहीं कह सकता।
और

और अंक्सर सारे बड़े पैर
सने होते हैं
लाल रंग में
नेताओं का सच इस से सटीक अब्भिव्यक्ति मे और किसी से शायद ही हुया होगा बहुत सुन्दर रचना है सुबीर जी को बहुत बहुत बधाई आपका भी धन्यवाद्


एक ऐसा यथार्थ जो ऐसे नेताओं पर सटीक बैठता है

अभिनव said...

बहुत सटीक रचना है गुरुदेव..

PRAN SHARMA said...

BHAVABHVYAKTI SAJEEV AUR SUNDAR
HAI.KAVITA CHHANDMUKT HOTE BHEE
LAY SE BHARPOOR HAI.ACHCHHEE KAVITA
KE LIYE PANKAJ SUBEER JEE KO BADHAAEE.

Science Bloggers Association said...

जिंदगी को बेनकाब करती एक क्रूर किन्तु सच्ची कविता।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

ashok andrey said...

ek achchhi kavita ke liye mae subir jee ko badhai deta hoon

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

भेडीया - वाकई में , बीभत्स रस का चित्रण करवाती सशक्त रचना है -
संत लक्षण एक यह भी है, उनके पास हर प्रकार के जीव आते हैं -
फिर भी वे अपनी सज्जनता का त्याग नहीं किया करते -
बापू भी " हे राम " कह कर प्रस्थान कर गए थे ...आज के नेता , की क्या बिसात ?
डॉलर की आंधी में सब कुछ उड़ रहा है ...
-- पंकज भाई को बधाई --
आ. महावीर जी को सादर धन्यवाद !
अब प्राण भाई साहब के रचना पढ़ती हूँ --
फिर लिखूँगी --
- विनीत ,
- लावण्या

प्रकाश पाखी said...

भेडियों को अपने को शरीफ जताने के लिए राज घाट से बढ़िया जगह कहाँ मिल सकती है...आदरणीय महावीर जी का आभार !एक सशक्त अभिव्यक्ति को पढने का अवसर देने के लिए...

दिगम्बर नासवा said...

यथार्त को कागज़ पर उतार दिया है गुरु जी ने ........ लाजवाब लिखा है ........ उनकी लेखनी पर आलोचना करना सूरज को दीपक दिखाने वाली बात है .......... प्रणाम है मेरा उनकी कलम को ............

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

समूचे विश्व के मेरे जैसे असंख्य पाठकों की भावनाओं का विरेचन करने में सक्षम इस कविता के लिए भाई पंकज सुबीर को और प्रस्तुति के लिए आदरणीय महावीर शर्मा जी को साधुवाद.

पंकज सुबीर said...

आदरणीय रंजना जी, रश्मि प्रभा जी, शार्दूला जी, समीर जी, मुरारी जी, निर्मला जी, अभिनव जी, प्राण साहब, जाकिर भाई, अशोक जी, लावण्‍य दी, प्रकाश जी, दिगम्‍बर जी, द्विज जी आप सब का बहुत आभार । जितनी पीड़ा के साथ कविता लिखी थी उसी के साथ आप लोगों ने पसंद किया है । कविता सार्थक हो गई । आदरणीय महावीर जी का भी आभार मंच प्रदान करने के लिये ।

"अर्श" said...

गुरु देव महावीर जी को सादर प्रणाम,
बचपन में हिंदी की कक्षा में भेडिये की एक कहानी पढ़ी थी मानस पटल पे अभी तो ताज़ी है उसी तरह से .. और आज गुरु जी की ये कविता जब पढ़ी तो लगा के कुछ भी तो नहीं बदला इस बदलते भारत में ,... अपने गुरु जी के बारे में कुछ भी कहूँ निशब्द हूँ... बस आप दोनों को सादर प्रणाम,

अर्श

Dr. Sudha Om Dhingra said...

सुबीर भाई,
इस कविता को कई बार पढ़ा. सटीक एवं सशक्त रचना है.
बधाई.

अविनाश वाचस्पति said...

पीड़ा को भेडि़ये के माध्‍यम से
जज्‍बातों में पूरी विद्रूपता के साथ
उकेर दिया है पंकज सुबीर ने।

महावीर said...

सुबीर जी की इस कविता में केवल भावाभिव्यक्ति, शब्द-चयन और काव्य-कला की दृष्टि से ही एक उच्चकोटि कविता नहीं है, बल्कि बुश की पाश्विक वृत्ति को बड़ी ही निर्भीकता से उजागर किया है. एक सटीक, यथार्थ और सजीव चित्रण से यह कविता अपनी एक अलग पहचान बना पाई है. बुश के चाटुकारों के लिए एक चेतावनी भी है और ललकार भी. अंत की पंक्तियों में कवि ने एक प्रश्न किया है:
उसी दिन से
गंध मेहसूस की जाती है
बारूद की
राजघांट की हवाओं में,
आपने मेहसूस की क्या.......?
सत्य तो यह है कि राजघाट की हवाओं में बारूद की गंध सुदूर देशों तक में महसूस की जाती है.
मैं सुबीर जी का आभारी हूँ कि पाठकों के लिए एक ऎसी कविता दी है जो दीर्घकाल तक मस्तिष्क में घूमती रहेगी. सुबीर जी को इसके लिए बधाई.
आप सभी को टिप्पणियों के लिए धन्यवाद.