
इस सप्ताह देरी से रचना लगाने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.. लीजिये पढ़िएगा लन्दन से उषाराजे सक्सेना जी की एक लाजवाब कविता-
कभी –कभी
अनजाने ही खुल जाते है
कुछ ऐसे पन्ने
जिनके शब्दों में
उभरने लगते हैं कुछ ऐसे शब्द चित्र
जिनमें सदियों से भटकती
प्यासी आत्माएँ
हाथ उठा- उठाकर
कातर आँखों से
न्याय की गुहार लगा रही हैं।
साँस ले रहे, आज
हर आदमी के सिर पर
कुछ मुर्दे लटक रहे हैं.
कई – कई चट्टानों का बोझ है.
मेरा बायाँ हाथ
बेजान महसूस करता है,
मैं खुद को भी,
बीते हुए अन्यायों के बीच
आसमान से गिरते
पँख कटे कपोत शिशु सा
असहाय पाती हूँ.
उषाराजे सक्सेना
प्रस्तुतकर्ता- दीपक मशाल
10 comments:
USHA RAJE SAXENA JITNEE ACHCHHEE
GADYA LEKHIKA HAIN UNTEE HEE ACHCHHEE PADHYA LEKHIKA BHEE HAIN.
UNKEE YAH KAVITA APNAA POORAA
PPRABHAAV CHHODNE MEIN SAKSHAM HAI .
यथार्थ कहती पंक्तियाँ.
जब परिस्थितियाँ मन का साथ देना बन्द देती हैं, विवशता काटने को दौड़ती है।
यथार्थ को शब्द मिल गए
सुंदर प्रस्तुति !!
पीड़ा और अवसाद को प्रभावशाली अभिव्यक्ति मिली है आपके शब्दों में...
सुन्दर रचना...
वाह !
मैं खुद को भी,
बीते हुए अन्यायों के बीच
आसमान से गिरते
पँख कटे कपोत शिशु सा
असहाय पाती हूँ.
aaj ke manav ke bheetar basee huee peera va lachari ko shabdon ka ochan pahna diya hai ,dhanyawad
बहुत बढ़िया, अत्ति सुंदर ! जारी रखे ! Horror Stories
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