Tuesday, 22 May 2012

प्रकाश सिंह अर्श की दो सुरमयी गज़लें



लगता है जैसे एक ज़माना बीत गया जबसे कोई पोस्ट नहीं लगा पाया.. कारण सुनने में न आपको दिलचस्पी होगी और न ही मेरे बताने से कोई बात बनने-बिगड़ने वाली है, इसलिए सीधे मुद्दे की बात पर आते हैं और आपको पढ़वाते हैं भारत के उभरते ग़ज़लकारों में से एक प्रकाश सिंह अर्श की दो सुरमयी गज़लें. सामग्री कई और भी क्रम में लगी हुई थीं लेकिन क्या करें हाल ही में प्रकाश भाई की शादी हुई तो सोचा कि जिन्हें पता न हो उन्हें भी मिल जाए ये शुभ समाचार... चलिए तो लगे हाथों अर्श को दो से एक होने की बधाई भी दे ही डालिए..
1.बडी हसरत से सोचे जा रहा हूँ!
तुम्हारे वास्ते क्या क्या रहा हूँ?

वो जितनी बार चाहा पास आया,
मैं उसके वास्ते कोठा रहा हूँ !

कबूतर देख कर सबने उछाला,
भरी मुठ्ठी का मैं दाना रहा हूँ !

मैं लम्हा हूँ कि अर्सा हूम कि मुद्दत,
न जाने क्या हूँ बीता जा रहा हूँ !

मैं हूँ तहरीर बच्चों की तभी तो,
दरो-दीवार से मिटता रहा हूँ !

सभी रिश्ते महज़ क़िरदार से हैं,
इन्ही सांचे मे ढलता जा रहा हूँ !

जहां हर सिम्‍त रेगिस्‍तान है अब,
वहां मैं कल तलक दरिया रहा हूँ!

2.
हम दोनों का रिश्ता ऐसा, मैं जानूँ या तू जानें!
थोडा खट्टा- थोडा मीठा, मै जानूँ या तू जानें !!

सुख दुख दोनों के साझे हैं फिर तक्‍सीम की बातें क्‍यों,
क्या -क्या हिस्से में आयेगा मैं जानूँ या तू जानें!!

किसको मैं मुज़रिम ठहराउँ, किसपे तू इल्ज़ाम धरे,
दिल दोनों का कैसे टूटा मैं जानूँ या तू जानें!!

धूप का तेवर क्यूं बदला है , सूरज क्यूं कुम्हलाया है ,
तू ने हंस के क्या कह डाला , मैं जानूँ या तू जानें!!

दुनिया इन्द्र्धनुष के जैसी रिश्तों मे पल भर का रंग,
कितना कच्चा कितना पक्का मैं जानूँ या तू जानें!!

इक मुद्दत से दीवाने हैं हम दोनों एक दूजे के ,
मैं तेरा हूँ तू है मेरा , मैं जानूँ या तू जानें!!

प्रकाश सिंह अर्श

प्रस्तुतकर्ता- दीपक मशाल 

Wednesday, 25 January 2012

गणतंत्र दिवस ... प्रस्ताव-- पुष्पा भार्गव


आज भारतीय गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं देते हुए आपके लिए लन्दन से आदरणीया पुष्पा भार्गव जी की मौके और माहौल वाली एक प्रेरक रचना लेकर आया हूँ.. पढ़िएगा और सराहियेगा


गणतंत्र दिवस ... प्रस्ताव


गम भुला

खुशियाँ लुटा

मुस्कुरा के चल

अँधेरी रात मेँ

डट के हौसला जुटा

रोड़ों को पथ से हटा

एक नई उमंग उठेगी

ज़िंदगी की चाह मेँ

सिर उठा

साहस दिखा

कठिनाइयोँ को ले के

अपने हाथ मेँ

खोज कर नई डगर

आगे बढ़ बन कर निडर

हँस के यह दुनिया सदा

चलेगी तेरे साथ मेँ


पुष्पा भार्गव

यू के


प्रस्तोता- दीपक मशाल

Sunday, 8 January 2012


इस वर्ष की यह प्रथम पोस्ट है इसलिए सबसे पहले आप सबको HAPPY NEW YEAR 2012...
मुंबई से भाई नवीन चतुर्वेदी की हरदिलअज़ीज़ गज़लें आपने पहले भी कई जगह पढ़ी होंगीं और यह महसूस भी किया होगा कि ऐसे ध्वजवाहकों के रहते ही ग़ज़ल लेखन की परंपरा हिन्दुस्तान की उम्र के बराबर बनी रहेगी. उनकी ग़ज़ल पढ़कर जरूर आप 'वाह सा'ब वाह' कर उठेंगे.. इरशाद भी कहेंगे और फिर ख़ुद ही दोबारा पढेंगे भी.. :)

कनाडा से प्रकाशित होने वाली शिखर हिन्दी प्रवासी पत्रिका हिन्दी-चेतना का इस बार का अंक इन्द्रधनुषी रंग बिखेर रहा है.. तो सोचा कि उसका लिंक आपको भी थमाता चलूँ-
पुस्तक रूप में पढ़ने के लिए लिंक- http://issuu.com/hindichetna/docs/jan_march_2012
पत्रिका की मुख्य वेबसाईट का लिंक- http://hindi-chetna.blogspot.com/2012/01/blog-post_02.html

एक और बात... ९ जनवरी से २१ फरवरी २०१२ तक भारत प्रवास पर रहूँगा अतैव संभव है कि रचनाओं का प्रकाशन बाधित हो.. फिर भी जहाँ भी इंटरनेट कनेक्शन मिला वहां कारवाँ आगे बढाने में देरी नहीं लगाऊंगा..

शरबती, मखमली हो गई है

ये ग़ज़ल आप सी हो गई है


इस क़दर है घुटन ज़िंदगी में

शायरी लाज़िमी हो गई है


गुफ़्तेगू खेत चौपाल वाली

आज पी. एच. डी. हो गई है


ग़ालिबन कुछ अमीरों की ख़ातिर

मुफ़लिसी - लॉटरी हो गई है


कोई अवतार आने को है क्या

रोशनी-रोशनी हो गई है


चींटियां घुस रही हैं बिलों में

कुछ - कहीं, खलबली हो गई है


अब चुनौती से लगता नहीं डर

नस्ल ये, हिम्मती हो गई है

नवीन चतुर्वेदी


प्रस्तुतकर्ता- दीपक मशाल

Friday, 23 December 2011

लन्दन से उषाराजे सक्सेना जी की कविता


इस सप्ताह देरी से रचना लगाने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.. लीजिये पढ़िएगा लन्दन से उषाराजे सक्सेना जी की एक लाजवाब कविता-






लाचारगी
कभी –कभी

अनजाने ही खुल जाते है

कुछ ऐसे पन्ने

जिनके शब्दों में

उभरने लगते हैं कुछ ऐसे शब्द चित्र

जिनमें सदियों से भटकती

प्यासी आत्माएँ

हाथ उठा- उठाकर

कातर आँखों से

न्याय की गुहार लगा रही हैं।

साँस ले रहे, आज

हर आदमी के सिर पर

कुछ मुर्दे लटक रहे हैं.

उनके कंधों पर

कई – कई चट्टानों का बोझ है.

मेरा बायाँ हाथ

बेजान महसूस करता है,

मैं खुद को भी,

बीते हुए अन्यायों के बीच

आसमान से गिरते

पँख कटे कपोत शिशु सा

असहाय पाती हूँ.


उषाराजे सक्सेना


प्रस्तुतकर्ता- दीपक मशाल

Sunday, 11 December 2011

भारत से चर्चित गज़लकार श्री नीरज गोस्वामी जी की दो ग़ज़लें


लीजिये आज पढ़िएगा भारत के चर्चित गज़लकार श्री नीरज गोस्वामी जी की दो अलग-अलग रंगों की बड़ी ही प्यारी ग़ज़लें.. पहली ग़ज़ल जहाँ एक ओर प्यार में खो जाने को उकसाती है तो दूसरी अपने देश को रहने की एक बेहतर जगह बनाने में गंभीरतापूर्वक अपना योगदान देने के लिए जगाती है..







१-

मान लूँ मैं ये करिश्मा प्यार का कैसे नहीं

वो सुनाई दे रहा सब जो कहा तुमने नहीं

इश्क का मैं ये सलीका जानता सब से सही

जान दे दो इस तरह की हो कहीं चरचे नहीं

तल्ख़ बातों को जुबाँ से दूर रखना सीखिए

घाव कर जाती हैं गहरे जो कभी भरते नहीं

अब्र लेकर घूमता है ढेर-सा पानी मगर

फ़ायदा कोई कहाँ गर प्यास पे बरसे नहीं

छोड़ देते मुस्कुरा कर भीड़ के संग दौडना

लोग ऐसे ज़िंदगी में हाथ फिर मलते नहीं

खुशबुएँ बाहर से 'नीरज' लौट वापस जाएँगी

घर के दरवाज़े अगर तुमने खुले रक्खे नहीं


२.

देश के हालात बदतर हैं, सभी ने ये कहा

पर नहीं बतला सका, कोई भी अपनी भूमिका

झूठ, मक्कारी, कमीनी हरकतें अखबार में

रोज पढ़ते हैं सुबह, पर शाम को देते भुला

बस गया शहरों में इंसां, फर्क लेकिन क्या पड़ा

आदतें अब भी हैं वैसी, जब बसेरा थी गुफा

इस कदर धीमा, हमारे मुल्क का कानून है

फैसला आने तलक, मुजरिम की भूलें हम खता

छोड़िये फितरत समझना, दूसरे इंसान की

खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है, सच बता

दौड़ता तितली के पीछे, अब कोई बच्चा नहीं

लुत्फ़ बचपन का वो सारा, होड़ में है खो दिया

दूसरों के दुःख से 'नीरज' जो बशर अनजान है

उसको अपना दुःख हमेशा ही लगा सबसे बड़ा


प्रस्तोता-

दीपक मशाल

Saturday, 3 December 2011

ग़ज़ल - प्राण शर्मा

आज प्रस्तुत करता हूँ यू.के. के प्रसिद्ध गज़लकार आदरणीय श्री प्राण शर्मा जी की ग़ज़ल
ग़ज़ल - प्राण शर्मा
नादान दोस्तो , पढ़ो ये बात ध्यान से
सोना निकलता है सदा सोने की खान से

लो ,हो गया धुआँ ही धुँआ हर मकान में
फैला धुआँ कुछ इस तरह से इक मकान से

तुम करते हो तरक्की तो अच्छा लगे बड़ा
ज्यों पंछी प्यारा लगता है ऊँची उड़ान से

सारे का सारा शहर भले छान मारिये
मिलता नहीं है चैन किसी भी दुकान से

कितना है बदनसीब वो इन्सान दोस्तो
अनजान ही रहा है जो दुनिया के ज्ञान से

उम्मीद उससे क्यों न बंधे लोगों को जनाब
अब तक तो वो फिरा नहीं अपनी ज़बान से

कब तक छुपाता ही रहेगा अपने जुर्म को
कब तक बचेगा ` प्राण ` वो झूठे बयान से

Tuesday, 29 November 2011

दोहा मुक्तिका---- संजीव 'सलिल'


दोहा मुक्तिका
यादों की खिड़की खुली...
संजीव 'सलिल' *








यादों की खिड़की खुली, पा पाँखुरी-गुलाब.
हूँ तो मैं खोले हुए, पढ़ता नहीं किताब..

गिनती की सांसें मिलीं, रखी तनिक हिसाब.
किसे पाता कहना पड़े, कब अलविदा जनाब..

हम दकियानूसी हुए, पिया नारियल-डाब.
प्रगतिशील पी कोल्डड्रिंक, करते गला ख़राब..

किसने लब से छू दिया पानी हुआ शराब.
मैंने थामा हाथ तो, टूट गया झट ख्वाब..

सच्चाई छिपती नहीं, ओढ़ें लाख नकाब.
उम्र न छिपती बालभर, मलकर 'सलिल' खिजाब..

नेह निनादित नर्मदा, नित हुलसित पंजाब.
'सलिल'-प्रीत गोदावरी, साबरमती चनाब..


पैर जमीं पर जमकर, देख गगन की आब.
रहें निगाहें लक्ष्य पर, बन जा 'सलिल' उकाब..

Wednesday, 23 November 2011

“वसीयत” के रचनाकार का छोटा सा परिचय- देवी नागरानी

वसीयतके रचनाकार का छोटा सा परिचय

श्री महावीर शर्मा लन्दन के निवासी, एक सुलझे हुए कहानीकार और गज़ल गो शायर भी है. परदेस हो या देश एक हिंदुस्तानी ह्रदय हर द्रष्टिकोण से अपने देश की सभ्यता और वहाँ की संस्क्रुति अपने आस पास के पात्रों में ढूँढता रहता है. शायद कहीं कहीं उसे अपना वजूद बिखरता नज़र आता है जिसका सिमटाव करने की कोशिश यह कहानी एक आईना बनकर सामने पेश आई है. साहित्य की सैर को निकलें तो उनकी साईट पर ज़रूर अपना पड़ाव बनाएं. श्री महावीर शर्मा द्वारा लिखी गई यह कहानी "वसीयत" दिलों का हक़ीकी दस्तावेज़ है. एक चलते फिरते टाइमज़ोन में ज़िंदगी के माइनों के बदलते रंग का ज़ाइका हक़ीकत का जामा पहन कर सामने आया है.

चलती चक्की देककर दिया कबीरा रोइ / दो पाटन के बीच में साबित बचा कोइ.

ज़िंदगी और मौत का फासला दर गुज़र करते करते, रिश्तों की बाज़ार से गुज़रना पड़ता है. यह एक आम इन्सान की ज़िंदगी का हिस्सा है जो एक कड़वे अहसास का ज़हरीला घूँट पीने के बाद ही तजुर्बा बन जाता है. आजकल ये एक आम चलन हो रहा है, शायद मशीनों के दौर में रहते रहते इन्सान की सोच भी मशीनी पुरज़ों की तरह चलते हुए अपना काम करती रहती है, बिना यह जाने, बिना यह देखे कि उन पाटों के बीच कौन आया, कौन ज़ख्मी हुआ, कौन कराह उठा. इस शोर के दौर में चीख़ का कानों तक पहुंच पाना तो नामुमकिन है, जहाँ बहरों की बस्तियाँ गूँगों की भाषा अब भी समझने के प्रयास में लगी हुई हैं. देखा और समझा जाए तो यह बात सच ही है कि कोई भी बुज़ुर्ग पैदा नहीं होता. 'आज का बालक कल का पिता' यही चलन है और रहेगा भी. बस सोच की रफ़्तार ताल मेल नहीं रख पाती और वही टाइमज़ोन का जेनिरेशन गैप बन जाता है.

खा़मुशी को ही झेलिये साहब /मुँह से कुछ भी बोलिये साहब.

गुफ़्तगू की तरह ख़ामोशियाँ भी बोलती हैं, चीख़ती है पर बेसदा सी उनकी वो आवाज़ें घुटन बन कर दफ़्न हो जाती हैं उन दिलों की धड़कनों में, साँसें अहसास लिये धड़कती हैं. ख़ामुशी की घुटन का घेराव जहाँ घना हो जाता है, वहाँ उसे तोड़ कर एक ज़िंदा लाश को जीवन दान देना एक नेक कदम होता है. पल दो पल उस बुढ़ापे को सहारा देना, उसके पास बैठकर उस के मन की भावनाओं को टटोलना, या उन्हें कुरेदने की बजाय सहलाना किसी तीर्थ पर जाने से ज़्यादा माइने रखता है क्योंकि पत्थरों में ख़ुदा बसा हैकहना और उस सत्य का दर्शन करना अलग अलग दिशाओं का प्रतीक है, धड़कते दिल में रब बसता है यह एक जाना माना सच है. पर सच से आँखें चुराना, कतराकर पास से होकर गुज़र जाना कितना आसान हो गया है. हाँ जब सच का सामना होता है तो ज़्यादा कुछ नहीं बदलता, इतिहास गवाह है हर बात दोहराई जाती है, सिर्फ नाम बदलते हैं, रिश्तों के माइने बदलते हैं, हालात वही के वही रहते हैं. शब्दों से टपकती हुई पीडा़ का अहसास देखें उनके ह्रदय की गहराइयों को टटोलें, पात्रों की विवशता, एकाकीपन के सूत्र में बंधती जा कह रही है. 'एक रात जब मूसलाधार वर्षा हो रही थी। ऐथल के ऐसा तेज़ दर्द हुआ जो उस के लिए सहना कठिन था। मैंने एम्बुलैंस मंगाई और ऐथल की करहाटों अपनी घबराहट के साथ अस्पताल पहुँच गया." एक अनंत पीड़ा को जिन सजीव शब्दों में महावीर शर्मा जी ने पिरोया है लगता है जैसे यह सिर्फ़ कहानी के पात्रों की बात नहीं चल रही है, उन्होंने खुद इस दौर को जिया है. इसी बात का जामिन है यह शेर:

ज़िंदगी को मैं तो जी पाई /उसने ही मुझको है जिया जैसे. आगे के अंशों से चलिये जोड़ते हैं अपने आप को....

मैं जानता था क्योंकि कोई सुनने वाला नहीं है, उस के अचेतन मन में पड़ी हुई पुरानी यादें चेतने पर आने के लिये जाने कब से सँघर्ष कर रही होगी, किंतु किसके पास इस बूढ़े की दास्तान सुनने के लिये समय नहीं है.” ( पढ़िये कहानी वसीयत”) <>) मन का हर ज़र्रा इस सत्य को किसी भी तरह नकार नहीं पाता, पर हाँ, कड़वी दवा का घूँट समझकर सिर्फ निगलने की कोशिश कर सकता है. काल चक्र तो बिना आहट, बिना किसी को सूचित किये, स्वार्थ अस्वार्थ के दायरे के बाहर, दुख सुख की परंपरा को टोड़ता हुआ आगे बढ़ता रहता है और ज़िंदगी के सफ़र में कहीं कहीं कोई वक़्त जरूर दोहराया जाता है जहाँ तन्हाई का आलम इन्सान को घेर लेता है, जहाँ वह मकानों की भाँय भाँय करती दीवारों से पगलों की तरह बात करना उस आदमी की बेबसी बन जाती है. दुःख सुख का अहसास वहाँ कम होता है जहाँ उसको बाँटा जाता है, वर्ना उस कोहरे से बाहर निकलना बहुत मुशकिल हो जाता है. ऐसे हालात में आंसू बेबसी का सहारा बन जाते है. आँसुओं का भार जितना ज़्यादा दर्द उतना गहरा…….!! कहानी मन को छूकर उसके मर्म से पहचान करा जाती है जब याद की वादियों से तन्हा गुज़रना पड़ता है. एक वारदात दूसरी के साथ जुड़ती हुई सामने जा रही है.

उस दिन मुझे माँ और ऐथल की बड़ी याद आई। मेरी आँख भर आई! पोते का नाम जॉर्ज वारन रखा.
कहानी का बहाव मन की रवानी के साथ ऊँचाइयों से बहता हुआ मानव ह्रदय की सतह में आकर थम जाता है. लावा बनकर बह रहा है पिघलता हुआ दर्द, जिसकी पीड़ा का इज़हार कितनी सुंदरता से किया है महावीर जी ने अपने पीड़ित मन की शब्द सुरा से हंसते खेलते एक साल बीत गया, इतनी कशमकश भरे जीवन में अब आयु ने भी शरीर से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया था.
इस कहानी की तार में पिरोया गया हर अहसास निराला है, अहसासों का इज़हार बख़ूबी शब्दों में दर्शाया गया है. वसीयत का एक पहलू बड़े ही निराले मोड़ पर खड़ा है जहां विलामानामक उस सफेद बिल्ली का जि़क्र आया है. इन्सान और जानवर के संतुलन का संगम, क्रत्घनता और क्रत्घय्ता का एक सँगम महावीर शर्मा जी के शब्दों में…!!
मैं उसे कहानी सुनाता और वह म्याऊँ म्याऊँ की भाषा में हर बात का उत्तर देती, मुझे ऐसा लगता जैसे मैं नन्हें जार्ज से बात कर रहा हूँ(जार्ज इस कहानी के पात्र के रूप में उनका पोता है) मर्म का क्षितिज देखिये..! "एक दिन वह जब बाहर गई और रात को वापस नहीं लौटी तो मैं बहुत रोया, ठीक उसी तरह जैसे जॉर्ज, विलियम और जैनी को छोड़ने के बाद दिल की पीड़ा को मिटाने के लिए रोया था। मैं रात भर विलमा की राह देखता रहा। अगले दिन वह वापस गई। बस, यही अंतर था विलमा और विलियम में जो वापस नहीं लौटा."
अभिलाषा अंतरमन के क़लम की ज़ुबानी अश्कों की कहानी सुना रही है. अपने बच्चों की आस, प्यास बनकर रूह की ज़ुबान से टपक रही है. लपकते शोले मोम को पिघलाने के बजाय दिल को पत्थर भी बना देते हैं. दिल के नाज़ुक जज़्बे बर्फ़ की तरह सर्द भी पड़ जाते हैं , यह इस कहानी में सुंदर प्रस्तुती से दर्शाया गया है. धन राशि को धूल की तरह तोल कर लुटाया गया, जिससे किसी के वक़्त का मोल चुकाया जा सकता है, और ना ही किसी के अरमानों को आश्रय देने की कीमत. हाँ आँका गया मूल्य तो उस एक अनकहे लफ़्ज़ का था, उस अनसुने शब्द का था जो कहीं कहीं अंदर ही घुटकर दफ़न हो गया था, पर स्नेह के थपथपाहट से कुछ पल धड़क कर जी उठा. जीवन की सार्थकता जब सिसकती है तो दिल की आह एक वसीयत बन जाती है. बस वसीयत ही रह जाती है. वसीयत के अर्थ की विशालता शायद इन्सानी समझ समझने में असमर्थ है. जो आँखें देखती है, धन, दौलत, घर परिवार, ईंट गारे से बने महल जो जाने किस खोखली बुनियाद पर बने है, जहाँ इन्सान नाकाम हो जाता है अपनी आने वाली अवस्था को देखने में, टटोलने में, जिसे वह आज सहला रहा है, सजा रहा है. आज जब कल का रूप धारण करेगा तब इतिहास दोहराया जायेगा. जहाँ वसीयत करने वाला लाचारी की शिला पर खड़ा है, उसी राह का पथिक हर एक को बनना है, तन्हा तन्हा उस बनवास के दौर से गुज़रना है .
अपना भविष्य उज्वल रखने वालों की चाह को सार्थक बनने और बनाने का बस एक यही साधन है कि आज का आदम कुछ पल अपनी इस मशीनी जिंदगी से निकाल कर खुद अपने परिवार के एक भी एकाकी सदस्य के मन में एक सखा भाव से झाँक कर देखे और उसे यह अहसास दिलाये कि वह अकेला नहीं है. वह तो एक भरपूर पुख़्ते परिवार का सहारा स्थंभ है, जो शासक होते हुए बहुत कुछ दे तो सकता है पर कुछ भी ले नहीं सकता, सिवाय कुछ क्षणों के जिनकी कीमत वह वसीयत के रूप में चुका सकता है. हाँ चुका सकता है.

समीक्षक: देवी नागरानी, न्यू जर्सी, यू. एस. . dnangrani@gmail.com